Wednesday, October 7, 2009

भोले पहाडी !

"अरे बेटा, अपना वो गुजरा ज़माना भी क्या ज़माना था, प्रगति की रफ़्तार सब बहा कर ले गई !" अपने उस सुदूर आँचल के किसी वयो-वृद्ध के समीप कुछ पल के लिए फुरसत से बैठो और आत्मीयता से उनकी बातो में लगाव दिखावो, तो समय के थपेडो से खंडहर में तब्दील हो चुके, गुजरे जमाने का वह सैलाब बर्फ की तरह पिघलकर किसी हिमालयी ग्लेशियर से बहकर बाहर निकलने लगता है! गुजरे युग की वो बाते जो आज की पश्चिमी सभ्यतापरस्त पीढी सुने तो, उसको महज एक मजाक दिखे ! लेकिन कल की वो एक हकीकत थी, एक कड़वी हकीकत !

वो वृद्ध आँखे, कुछ याद करने के लिए झुर्रियों की परतो में दबे मस्तिष्क पर जोर डालकर कहना शुरू करती है; बेटा, बहुत भोले-भाले और सीधे लोग थे, उस जमाने में ! जब बासठ की लड़ाई लगी थी, चीन माणा तक घुस आया था, तो उस जमाने में देश में बहुत कम लडाकू हवाई जहाज थे! जब कभी वायुसेना का कोई लडाकू जहाज ऊँचे पहाडो के ऊपर से गुजरता तो लोग सहम जाते, मवेशी विदक जाते थे! स्थानीय लोग कोई बड़ा गरूड पक्षी उस जहाज को समझते और कहते कि
हे गरूड तू इस तरह से "सू" की ध्वनि से मेरे घर के ऊपर से गुजरकर मेरे मवेशियों को डराता है ;

किले जाणु छै गरूड मेरी मरोड़ी का ऐंच सै,
इन न डरो चुचा गरूड, मेरी गौड़ी-भैंस्यु तै !

१९३० के भीषण अकाल के बाद पहाड़ के लोगो की स्थिति भी जर्जर हो गई थी! गरीबी में गुजर बसर करता एक गरीब अपने मन के उदगारों को कुछ इस तरह से व्यक्त करता है कि हे गरीबी, तू कब मेरा साथ छोडेगी;

हे गरीबी, चूची गरीबी, राली कब तकै तू मेरा साथ मा !
एक ऊ भी दिन भी आलू, जब तू आली मेरा हाथ मा !!
ओढूणु नी च, बिछोंणु नी, ठंडन छोरा रोंदन रात मा !
भांडू नी च, कूंडू नी च, खाणु खांदा मालू पात मा !!
गलू भिगोण्नो कु साग नी च, खाई लोण राली भात मा !
लत्ती नी च, कपडी नी च, नौना घुम्दा नांगा गात मा !!
हे गरीबी, चूची गरीबी, राली कब तकै तू मेरा साथ मा !
एक ऊ भी दिन आलू, जब तू भी आली मेरा हाथ मा !!


देश में स्वतंत्रता का दौर आया, ये आजकल के ज्यादातर हराम का खाने वाले नेता तो बस, भ्रष्ट तरीके अपनाकर घर भरने और जल्दी अमीर बनने की गरज में नेतागिरी में उतरते है, लेकिन उस दौर का जो युवा नेतागिरी में उतरने की सोचता था, उसका पहला उदगार जो मुख से निकलता, वह यह होता था कि मैंने भी अपने पिछवाडे पर डंडे खाने की कसम खा ली है, अतः मैं नेतागिरी करने जा रहा हूँ !

बड़ा-बड़ा भारत का नेता ह्वैन,
छोटा-छोटो कु खेल जी,
महात्मा गांधीन सीखी याली
चरखा कातण बेल जी !
जनानियों सीखी याली,
लच्छा जम्बत साडी जी,
मर्दों न भी मूछ मुंडाई,
अर् साफ़ बणाइ दाड़ी जी !
झीला-झाला सुलार झुलेंदा
पूठो मा कोट जी,
होण लगी वख तभी
तौंकी चटा-चट चोट जी !

वहीं दूसरी तरफ देश-रक्षा का जज्बा लिए युवक जब फौज में भरती के लिए आगे बढ़ते तो अपने परिवार से कहते कि ;
धर दे मांजी तू मैंकू रोट
छोड़ दे प्यारी तू मेरु कोट,
कूट दे प्यारी चूडो की घाण
भोल सुबेर जरुरी जाण,
सीखा सिपाहियों तुम बिग्लू कि बोली
भोल तुमारी हाजरी होली,
खावा सिपाहियों तुम काचु प्याज
चलोंण तुमुंन पाणि कू जाज,
नी औंण प्यारी तुमुंन साथ
तुम छा प्यारी जंनानी जात,


बेटा, अपना ये दर्द अब किसे सुनाये, किसी के पास समय ही नही है ? एक लम्बी आह भरकर वह वृद्ध आखो पर छा गई गीली परत को सांफे से साफ़ करने लगे थे !

Monday, October 5, 2009

न हाथीन स्वीली जाण, न बदरू दादन बजार आण !

अपना गढ़वाल की या एक पुराणी कहावत अचानक याद ऐगी, या कहावत भी कुछ वीं कहावत सी मिल्दी-जुल्दी च कि 'न बुबन ब्याण, न भुला होण !' ठीक उन्नी य कहावत भी च कि 'न हाथीन स्वीली जाण, न बदरू दादन बजार आण' !

ईं कहावत का पिछ्नै की कहानी या च कि रुद्रप्रयाग का ठीक पलिपार खड़ी चडाई चढ़न का बाद ऐंच डांडा माँ एक गों पड़दू स्वीली ! ये गौं माँ डिमरी लोग रंदन! बहुत पैली ये गौं माँ एक बदरू दादा रंदा छा ! काफी झाड्फूक और तंत्र-मन्त्र जाणदा छा ! उंगी ख्याति आखिर टीरी का राजा तक पौंछि और राजन वो तै अपणा दरवार माँ पहुंचण कू हुक्म सुणइ, जब अर्दली हुक्म लीग तै स्वीली पहुंची त बदरू दादन राजा तै रैबार भेजी कि जब तक मैं लेण कु हाथी नि आलू मैं दरवार माँ नि ऐ सक्दू ! अब समस्या इ खड़ी ह्वैगी कि आखिर वे खडा डांडा माँ हाथी पौछ्लू कन माँ ? त न कभी स्वीली हाथी गै सकी और न बदरू दादा बजार ऐ !