Sunday, March 21, 2010

दो गढवाली क्षणिकायें

परचेत!

कन्धा मा,
बंठा-गागर लीक,
थक जान्दु
सारी-सारीक,
दूर गौंगा धारा बिटीक,
दिन-दोफरी पाणी की घेत ।
न क्वी वै तै पुछ्दु,
और न उ आफ़ु पेन्दु,
दिनभर,
प्यासू ही रै जान्दु,
खडौण्या,निर्भैगी लाटु परचेत ॥

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सिफै !

मां भी छोडिगी छै,
लुकारी डेली मा धारीक
कब तलकै
ब्वै रांड भी,
इनि दशा मा खैचू,
गौ वालौन भी.
धीरु-धीरु,
बन्द करली छौ
देण वी तै पैंछु,
और तब वू,
बचपन बिटिकी ज्वानि तक,
लुकारी डेल्यों मा,
भूखौ,
रात-दिन सिपाणू रै।
अर इन्नी सिपै-सिपैग,
एकदिन
वू बणिगे सिफै ॥