Sunday, May 30, 2010

औखाणु !

मेरु नौनू बीस पाथा सौक्याल्दु भै, पर नि सौक सक्दु दोण,
तु तनि टर्कणि ना गाड, न बुबन ब्याण, अर न भुला होण !

रात देरि सि घौर आन्दु त वा मी कुणि नि दरवाजु खोल्दी ,
क्य बोल्ण, जै बौ कु बडु भरोसु छौ, स्ये दिदा-दिदा बोल्दी !

पतनि ई निर्भागी जलन्खोर बुढ्डी किलै ब्वारी कि खैर खान्दि,
सासु बोल्णी छै कि नाक जुनि होन्दु त ब्वारी गू भी खै जान्दि !

सासु खिजेन्दी ब्वारी तै, तु आटु गुन्ददी दा किलै हिलान्दि,
ब्वारी बोल्दी निर्भैगी सासू, तु करयाँ काम मा किलै नचरान्दि !

ब्वारी जब कभी नहेण कु जान्दि त सासु आप्णु गिचु मोड्दी,
क्य त ब्वारी पाणि नि चौदि, अर चौन्दि च त धारु नि छोड्दी !


````````````````````````````````````````````````````````



एक गढ़वाली गजल नुमा कविता - औचाट !

पेण क्या, सूखी ग्याई, छ्वाया-गदनियों कू पाणी यख,
सूनी उदास बौंड- ओब्रियों, लगदु नी च यु प्राणि यख !
दिन काट्याल्दुं त्वे जाग्दु, रात काटणि मुश्किल होंदी,
ऐजा सुहा अब जल्दी घौर, इ जिकुड़ी च टपराणी यख !!

ससुराजी का हुक्का कु गुड-गुड, रात-दिन डिंडाला मा,
खाणे की निखाणी रांदी, चा का भौर कल्च्वाणी यख !
खिज्यां रंदू चिठ्ठी लेख्णु, बिज्यां तेरा सुपिना देख्णु,
सुबेर ज़रा नींद आंदी त, भैर सासू रंदी बरणाणी यख!!

जौ भी कख इनि रूडियों की भरी उदास दोफ्र्यों मा,
बौण कू क्वी दगुडू नी च, पुंगडियों नी च धाणी यख !
सोचदी रंदू कब तू आलू, त्वेमा दिल की खैरी लालू ,
आख्यों मा छ्ल्काणु रांदु, क्वांसा मन बत्वाणि यख !!

ये घर मा मेरी क्वी नि धर्दु,यख रणों कु ज्यू नि कर्दु,
दिन-रात गाड्नु रंदू त्वे दगडी, जाणेकि स्याणी यख !
दयूर-नन्द गुणदा नींन, सै-ससुरा मेरी सुणदा नींन ,
त्वी बतौ कब तलक मी संभालू अपणी बाणी यख!!

Sunday, May 9, 2010

गौ की याद !







गर्मियों की छुट्टियों मा,
गाड -गदन्यों फुण्ड
सुदि रन्दा छाँ ॠण्णाँ।

क्य वक्त छौ उ भी

जब उन्द शहरु  बिटिक,
अपणा गौं  जाण कु
दिन रन्दा छाँ  गिण्णाँ॥

अब त बस

दिल का जख्मु तै,
वक्त बेवक्त याद करीक

खुजाणां रैन्दा  ।

बचपन की वा

गौं की यादू  तै,
सेंदा-जाग्द आंखियों मा

रिंगाणां रैन्दा ॥

रूड्यौं का दिनु मा 

पाखा-धारु मा ,
कुऴैंकी  डालियों मा

छेंति-मेला रंदा छा तिण्णाँ।

क्य वक्त छौ उ भी

जब उन्द शहरु बिटिक,
गौं-पाहड जाण कु
दिन रन्दा छाँ गिण्णाँ॥


छोड-पुंग्डी जथ्गा छै
बांजा पडीं छन,
कूडी ज्वा छै

वा खन्द्वार ह्वैगि।

बेटी-ब्वारी, नौना-बाला

जू देश गै छा,
ऊँ  पर देशियों की अन्द्वार ऐगि॥

किन्गोडै की बोटिल्यों,

हिसरै की झाडियो मा,
हिसर-किन्गोड

रन्दा छा बिण्णाँ।

क्य वक्त छौ उ  भी

जब उन्द शहरु बिटिक,
अपणा गौं  जाण कु
दिन रन्दा छाँ गिण्णाँ॥

क्य रैंदा छाँ गांणाँ   

छाजा-निमदारि,
सैतीर पर घेन्टुडियों का घोल ।


सुबेर उठि-उठीक,

धुर्पाला-मुन्डेरि मा
छेऩ्टुळा,घुघुतियों का बोल॥


सेरा  की पुन्ग्डियों मा
रामलीला का दिनु,
ज्वान छोरा क्या
रन्दा छा भिण्णाँ।


क्य वक्त छौ उ भी
जब देशु-शहरु बिटिक,
गौं-पाहड जाण कु
दिन रन्दा छाँ गिण्णाँ ॥

डांडियों मा कुयेड़ी त 

अब भी लग्दी ह्वाली ,
धारा का पाणि की धार

अब भी बग्दी ह्वाली।

बथौन कुलैंकि डालि

अब भी हिल्दिन,
गौंमा पर कखी पर

मन्खि नि मिल्दिन॥

कख  कु उतरि ह्वालू 

गौ का जवान-स्याणा  सभी, 
देखि-देखीक
आंखि रन्दा छा मिण्णाँ।

क्य वक्त छौ उ भी

जब देशु-शहरु बिटीक,
अपणा गौं जाण कु
दिन रन्दा छां गिण्णाँ॥

उपरोक्त गढ़वाली कविता का सारांश यह है कि बहुत साल पहले जब गाँव हमारे भरे पूरे थे, वहाँ खूब चहल-पहल होती थी, तो अपनों के पास गर्मियों की छुट्टियां बिताने जाने के लिए बहुत पहले से दिन गिनने शुरू कर देते थे , लेकिन अब लोग रोजी रोटी की तलाश में उन ख़ूबसूरत सुदूर पहाडी गाँवों से पलायन कर गए है ! गाँव के गाँव खाली पड़े है, दिल बहुत होता  है अपने उस सुदूर अंचल की उन छांवो में जाने को, मगर वहाँ जायेंगे किसके पास ?

Saturday, May 1, 2010

बोडा फोन !

बोडीन पूछी,
ज्यू तेरु सी हाथ पकड़्यूं
बबा सी क्या  दौन च  ?
बोडी, यो  बोडा-फोन  च !!

हे बबा, तेरा बोडा मरयां त
चार साल ह्वेय्गिन,
वून सी फोन कबारी दिनी त्वे तै ?
बोडी यु बोडाजी कु नी दिन्यु,
यी बोडा-फ़ोन च !
बबा तू तन ना डौर
नि छौ में त्वै मू कै लुछ्णु,
सी कै बोडा कू फोन च ?
मैं त बस यी छौ त्वे पुछ्णु !!