Monday, January 9, 2012

गढ़वाली कविता- कख गै होला !

















बचपन की याद किलै औंदी इन,

कख गै होला उ खडौंण्यॉ बाऴा दिन,


किलै इथ्गा खुदेंदु यु ज्यु कैगा बिन ,


कख बिटिक ऐन ई निर्भैगी काऴा दिन !


मुंगरी-काखड़ी सैरी चोरी- चोरीक खाई,


गैह्युं की पुंग्डियौं मा उमी पकाई,


पसरी की पंदेरा की चौड़ी ढुंग्यौं मा,


बंठा, तौली अर गागर बजाई ,

भर्युं भांडू फोडी कै दां बाटा फुंडैं मिन,


कख गैई होला उ खडौंण्यॉ बाऴा दिन !


कख बिटिक ऐन ई निर्भैगी काऴा दिन !!






बौंण-गदन्यौं मेटया हिलै-हिळैकि डाऴी,


हिसर,बेडु-काफल खैन लूंण माँ राऴी,


कोश्डी पर रैंदु छौ धर्यु चटपटु लोण पीसी,


कडकडी रैंदी छै ह्वाई गुडन कीसी,


सोचि-सोचिक अब मन ह्वै जांदू खिन्न,


कख गैई होला उ खडौंण्यॉ बाऴा दिन !


कख बिटिक ऐन ई निर्भैगी काऴा दिन !!






घस्यारियों का गीत डांडा-धौळ्यौं मा,


गंज्यालियों कु संगीत चौक-गौळ्यौं मा,


मुन्ड़ेला-गुठेऱौं मा घड्याळु-मंडाण,


सगोड़ी-पुंग्डियौं मा व्याख्निकी धाण,


पोट्गी का बानौ यख आँखी भी थकिन,


कख गैई होला उ खडौंण्यॉ बाऴा दिन !


कख बिटिक ऐन ई निर्भैगी काऴा दिन !!



हिंदी सार: पता नहीं कहाँ गए वो बेफिक्री के बाला-दिन,आज इन मुएँ काले दिनों में ये बचपन की याद इसतरह क्यों आती है ? वो मक्की और ककडी चोर के खाना, गेंहूँ के खेतों में उमी( गेंहूँ की ताजा पकी बाली) को भूनकर खाना, गाँव के जलस्रोतो के पास पत्थरों में बैठ पानी के वर्तनो को बजाकर संगीत पैदा करना, हिसर-बेडु, काफल ( पहाडी वन-फल) नमक मिलाकर खाना, महिलाओं के पहाडी गीत, पहाड़ का संगीत इत्यादि सब कुछ इस पेट के खातिर छोड़ आए !