Wednesday, July 24, 2013

'चीड़-पिरूल' विद्युत और उत्तराखंड !

अलग राज्य का दर्जा प्राप्त हुए उत्तराखंड को लगभग तेरह साल हो चुके है। कौंग्रेस और बीजेपी ने यहाँ बारीबारी से राज किया। आज की तिथि तक कुल 2309 दिन उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार रही और 2330 दिन कॉग्रेस की। बीजेपी के चार मुख्यमंत्रियों क्रमश: सर्वश्री नित्यानंद स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी, बीसी खंडूरी  और रमेश पोखरियाल ने राज किया, जबकि कॉग्रेस के दो मुख्यमंत्रियों सर्वश्री एन डी तिवारी और विजय बहुगुणा ने यह सौभाग्य प्राप्त किया। लेकिन इसे उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि एक अलग राज्य बनने पर जो उम्मीदे और अपेक्षाए उसने संजोई थी, उसपर कोई भी राजनीतिक दल खरा नहीं उतरा।

अक्सर हमारा तमाम तंत्र अपनी अक्षमता को छुपाने के लिए पर्याप्त धन और सुविधाओं के अभाव  का रोना रोता रहता है। लेकिन अगर इच्छाशक्ति हो, मन में अपने क्षेत्र, राज्य  और देश को सशक्त बनाने का जज्बा हो तो सीमित स्रोतों से सरकार को सालाना मिलने वाली आय भी राज्य के विकास में एक महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकती है। उत्तराखंड में चीड़ के जंगलों की बहुतायत है। उत्तराखंड वन विभाग के अनुमानों के अनुसार उत्तराखंड के  १२  जिलों के १७ वन प्रभागों के करीब ३.४३ लाख हेक्टीयर जमीन पर चीड के जंगल हैं जिनसे प्रतिवर्ष करीब २०. ६०  लाख टन पिरूल (Pine needles), बोले तो चीड की नुकीली पत्तियाँ और स्थानीय भाषा मे कहें तो 'पिल्टू' उत्पन्न होता है।

पहाडी जंगलों में इस पिरूल के भी अपने फायदे और नुकशान है। वसंत ऋतू  के आगमन पर चीड के पेड़ों की हरी नुकीली पत्तिया सूखने लगती है। मार्च  के आरम्भ से ये पेड़ों से झड़ने शुरू हो जाते है और यह क्रम जून-जुलाई  तक चलता रहता है। जहां एक और सड़ने के बाद यह पिरूल जंगल की वनस्पति के लिए आवश्यक खाद जुटाता है  और बरसात में पहाडी ढलानों पर पानी को रोकता है, वहीं दूसरीतरफ यह वन संपदा और जीव-जंतुओं का दुश्मन भी है। आग के लिए यह बारूद का काम करता है और एक बार अगर चीड-पिरूल ने आग पकड़ ली तो पूरे वन परदेश को ही जलाकर राख कर देता है। सूखे में यह फिसलन भरा होता है और गर्मी के दिनी में पहाडी ढलानों पर कई मानव और पशु जिन्दगियां लील लेता है। कुछ नासमझ सैलानी बेवजह और कुछ  स्थानीय  लोग बरसात के समय नई हरी घास प्राप्त करने के लिए जान-बूझकर इनमे आग लगा देते है।

लेकिन आज की इस तेजी से विकासोन्मुख दुनिया  में चीड-पिरूल हमारी बिजली  और ईंधन की जरूरतों को पूरा करने में एक अहम् रोल अदा कर रहा है/कर सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ बारह टन पिरूल एक पूरे परिवार के लिए सालभर का ईंधन(लकड़ी का कोयला), ८ MWh (प्रतिघंटा) यूनिट बिजली और एक आदमी के लिए सालभर का रोजगार उत्पन्न करता है। एक अनुमान के अनुसार अगर हर वन क्षेत्र के समीप  एक १०० कीलोवाट का चीड-पिरूल विद्युत संयत्र लगा दिया जाए और १०० प्रतिशत पिरूल उत्पादन का इस्तेमाल बिजली उत्पन्न करने हेतु किया जाए तो इससे उत्तराखंड में करीब ३ लाख पचास हजार कीलोवाट से चार लाख किलोवाट बिजली उत्पन्न  की जा सकती है। आपको मालूम होगा कि एक सामान्य घर में २ कीलोवाट का बिजली का मीटर पर्याप्त होता है, खासकर पहाडी इलाकों में जहां अक्सर पंखे/कूलर चलाने की जरुरत भी नहीं पड़ती। इसका तात्पर्य यह हुआ कि डेड से दो लाख घरों में बिजली सिर्फ पिरूल संयंत्र से ही पहुंचाई जा सकती है ।  इतने तो पूरे उत्तराखंड में घर ही नहीं है तो जाहिर सी बात है कि बाकी की बिजली ( बांधो से प्राप्त विधुत के अलावा) एनी राज्यों को निर्यात कर सकते है। हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा वो अलग, वन संपदा को आग से बचाया जा सक्रेगा, वो अलग।         
                                 
Firing Up Dreams
पिरूल गैसीकरण प्लांट जिसमे पिरूल को छोटे टुकड़ों में काटकर डाला जाता है और उत्पन्न ऊर्जा को विद्युत लाइनों में पम्प कर दिया जाता है 

अब आते है इन सयंत्रों की लागत और उसके लिए आवशयक वित्त स्रोतों पर। १०० से १२० कीलोवाट  के  एक चीड़ -पिरूल विद्युत संयत्र की लागत करीब ४ करोड़ रूपये है। और उत्तराखंड में उपलब्ध कच्चे माल की कुल उत्पादन क्षमता(३५०००० कीलोवाट अथवा ३५० मेघावाट) प्राप्त करने के लिए करीब ३००० ऐसे संयंत्रों की  जरुरत पड़ेगी। यानि कुल वित्त चाहिए करीब एक ख़रब डेड अरब रुपये। माना कि जून २०१३ में आई उत्तराखंड प्रलय के बाद परिस्थितियाँ भिन्न हो गई है, किंतु अगर हम इस देश के पर्यटन मंत्रालय के आंकड़ों पर भरोसा करें तो अकेले सन २०११ में करीब २ करोड़ ६० लाख यात्री उत्तराखंड भ्रमण के लिए पहुंचे थे। ज्यादा नहीं तो मान लीजिये कि प्रति यात्री ने वहाँ औसतन हजार रूपये खर्च किये, तो सीधा मतलब है कि  कुल पर्यटन विक्री या लेनदेन उस वर्ष में उत्तराखंड की करीब पौने तीन ख़रब  रुपये था। अब मान लीजिये कि मिनिमम  १० प्रतिशत राजस्व ( टैक्स इत्यादि) इस लेन-देन से सरकार को प्राप्त हुआ तो कुल हुआ पौने तीन अरब रूपये। तो अगर सरकार सिर्फ इसी धन को भी चीड-पिरूल विद्युत परियोजनाओं पर लगाए तो प्रतिवर्ष करीब ५०-५५ संयत्र लगा सकती है। वैसे भी एक अकेली बाँध परियोजना खरबों रुपये की बनती है। 

अफ़सोस कि इस दिशा में अभी तक कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया गया है। अवानी बायो एनर्जी नाम की एक प्राइवेट संस्था   इस दिशा में तमाम तकलीफों के बावजूद उत्तराखंड में हाथ-पैर मार रही है, प्रयास हालांकि उनका बहुत ही सराहनीय है। और शायद इस जुलाई अंत तक १२० कीलोवाट का उनका एक संयंत्र पिथोरागढ़ के त्रिपुरादेवी गाँव में काम करना शुरू भी कर देगा, मगर हमारी सरकारे कब जागेंगी, नहीं मालूम !  



छवि गूगल से साभार !             

Thursday, July 4, 2013

तू कैमा निबोली, त्वेकुणि म्यार सौं च।





आपणि जिकुडी मा बसायुं, इक त्य़ार नौ च,
पर तू  कैमा निबोली, त्वेकुणि  म्यार सौं च।

दिल त त्वे अपणु मिन, पैली ही दियाली छौ, 

जन्मपत्री भेजीं बाबा न, तन्त बतेरी जगौ च।

रौंत्याळा त बतेरा ह्वाला,गौं डांडी-काँठ्यो मा,
पर  सुपिनौ मा रिङ्ग्दु, सिर्फ तेरुहि  गौं  च।

जौं आँखियोंन ह्यूंद भी कभी, पाळु नी ढ़ोळी,
यादमा तेरी, वूं आँखियों मा, लग्दी सगौं च।

गौ-गौळा, बौण-पंदेरों हिटदू, लोग घूर्दी रैंदन,
पूछिनिहो जैन,त्व़े क्य ह्वाई, ईनि क्व़ा मौ च। 

होण लग्युं भारत निर्माण !









सोचि-सोचिकीतैं सूखिगेछा जब वीँका प्राण,  
निम्दैरी मा बैठीकि, बोड़ी लगीं छै बरणाण। 
कन निर्बिजु ह्वे बोला दूं ये निर्भागी सरगौकू, 
न बौण जाणकू रै, न डोखरी-पुंग्डियो धाण।      
चूचौं,कन अचांणचक या ळोळी प्रलय आई, 
छोड-पुंगडि गैन बौगी,अब हमुन क्य खाण।
मुन्ड़ेली मा बैठी बोड़ा हुक्का छौ गुगणाणू,
कूड़ा ढीस्वाळ एक हैलिकॉप्टर लगी उड़ाण। 
बोडन बोडी तै आँख मारी,हैलिकॉप्टर दिखै,
अर मुसकरैक बोली; हो रहा भारण निर्माण।।