आज भिंडी साल पैली की
व बात याद आई,
जब मेरा बुबाजिन मी तै सीख दिनी छाई,
कि बेटा, ज्वानि की या
तेरी अपणी उमर च,
तु इश्क-मुश्क लड़ो,
भले जै भी गोरी दगडी !
पर जिन्दगी मा अगर तू
सुखी रण चान्दी त,
ब्यो करी सिर्फ
अपणा गढ़वालै छोरी दगडी !!
भिन्डी नि उछल्दन,
अपणी औकात मा राणू ,
बैलबोटम,जींस-पैंट वाऴी का
चकरु मा नि जाणू,
मुल्कैगी नौनी तेरा दगड़ा,
टेंट मा भी रै सकदी,
खुश ह्वैकी भात रम्दैगी,
खै सकदी काफ्ली, तोरी दगडी !
अगर सुखी रण चान्दी त,
ब्यो कैलू जब त करी सिर्फ
अपणा गढ़वालै छोरी दगडी !!
पर मिन अपणा बुबै की
एक नि सुणी तबारी,
अर ब्यो करीक लायुं घौर
स्याणी शहरी-देशी ब्वारी,
अब याद आंदी मी तै अपणा बुबाजी की बात,
सुबेर-शाम जब बोंज मा
पड़दी जोर की लात,
पछ्तैगी भी कुछ नि मिल्न
अब यीं चटोरी दगडी,
खोपड़ी खजे जु ब्यो नि करी
कै गढ़वाली छोरी दगडी !!
सार : इस हास्य कविता का हिन्दी सार यह है कि मेरी जवानी के दिनों में मेरे पिताजी ने मुझे सीख दी थी कि बेटा तमाम उम्र तेरे आगे पडी है, तू इश्क-मुश्क भले ही जिस भी लडकी के साथ लड़ा किन्तु शादी सिर्फ अपने मुल्क की लडकी के साथ ही करना ! मगर हमने पिताजी की बात नहीं मानी और ....... अब पछताए होत क्या......!