Monday, October 18, 2010

मेरी दादी बोल्दी छै....

जनि करला,
तनि भरला,
दिन का बाद रात च,
नपी-तुलीं बात च,
पुराणि थेक्लीन भी पैली
घुंडी-क्वीन्यों मा ही दरकण !
मेरी दादी बोल्दी छै कि बबा,
अग्नैगी जलीं मुछालिन भी
पिछ्नै ही सरकण !!

बिना हिलायाँ त
क्वी पत्ता भी नि हिल्दू,
भाग मा जैगा जथ्गा हो,
उथ्गा ही मिल्दू,
भली दुसरै की देखीकी
बल नि गाड्नी टर्कण !
मेरी दादी बोल्दी छै कि बबा,
अग्नैगी जलीं मुछालिन भी
पिछ्नै ही सरकण !!

खुट्टा उथ्गा ही पसार्निंन,
आफुमू चादरी हो जतणी,
बाट्टा चल्दु कै मा भी
सुदी जुबान नी ख़तणी,
पठवा बांध्युं चैन्दु
जब घाघुरु लगु नरकंण !
मेरी दादी बोल्दी छै कि बबा,
अग्नैगी जलीं मुछालिन भी
पिछ्नै ही सरकण !!

हिन्दी में इस गढ़वाली कविता का सार यह है कि जैसा करोगे वैसा भरोगे, इंसान को औकात से अधिक नहीं बढना चाहिए !

Friday, September 10, 2010

कब आलू चुचा घौर ?

एक पहाडी माँ, बेटे को पत्र में अपने मन का गुबार इस तरह निकाल रही है ;

सूट-बूटै की चमचम 
अर 'लौंण-खाण' का भौर,  
भिन्डी साल ह्वैग्या त्वे
परदेश गयां छोरा,
कब आलू चुचा घौर। 


ना खै-कमैकी जाणी, 
सुद्दी-मुद्दी की श्याणी ,  
दुनिया की देखा-देखी
अर पड़ोस्यों की सौर ,…… भिन्डी साल ह्वैग्या त्वे ……
 


  

ना डोखरी-पुङ्गडी गोड़ी,
झठ अप्णु मुल्क छोड़ी,   
द्वी बेल्यौ भी नी पाई   
कखि हमुन अपणा दौर ,…… भिन्डी साल ह्वैग्या त्वे ……  

ब्वारी इखुलि रैंदी बरणाणी,
खाणै की ह्वैई निखाणी,
नौना-बा
ळा गुठेरा फुंड रिचेणा,
इन ग़ाड़ी तौंकी लौर
,…… भिन्डी साल ह्वैग्या त्वे ……  

कखि  दवै-दारु नी च,
क्वी अपणु सारु नी च,
वैध मू ल्हीजाण कनकै
ज्यु आलू कै तै जौर
,…… भिन्डी साल ह्वैग्या त्वे ……  

गौँका गौं खाली ह्वैगीन,
सभी उन्द  गैं  बौगीन,
माळ्या खोळा का भैडा
अर तळ्या खोळा का मौर,
…… भिन्डी साल ह्वैग्या त्वे ……  


त्वे आँखी रैंदीन खुजाणी,
खुदेँणु  रैन्दु  प्राणी,
रात नखरा सुपिना आंदा
जिकुड़ी  बैठिगी डौर,



भिन्डी साल ह्वैग्या त्वे
परदेश गयां छोरा,
कब आलू चुचा घौर। 

गढ़वाली कविता , जिसमे माँ अपने प्रदेश स्थित बेटे को पत्र लिख कर कह रही है कि जमाने की चमक-दमक से प्रभावित हो,लोगो की देखा-देखी तू भी बहुत साल से प्रदेश गया हुआ है, दुनिया की शानोशौकत और अपना जीवन-स्तर ऊपर उठाने की चाह में , बेटा तुझे प्रदेश गए बहुत साल हो गए, तू घर कब आयेगा ?..............?

Wednesday, August 25, 2010

बुबै सीख !

आज भिंडी साल पैली की
व बात याद आई,
जब मेरा बुबाजिन मी तै
सीख दिनी छाई,
कि बेटा, ज्वानि की या
तेरी अपणी उमर च,
तु इश्क-मुश्क लड़ो,
भले जै भी गोरी दगडी !
पर जिन्दगी मा अगर तू
सुखी रण चान्दी त,
ब्यो करी सिर्फ
अपणा गढ़वालै छोरी दगडी !!



भिन्डी नि उछल्दन,
अपणी औकात मा राणू ,
बैलबोटम,जींस-पैंट वाऴी का  
चकरु मा नि जाणू,
मुल्कैगी नौनी तेरा दगड़ा,
 टेंट मा भी रै सकदी,
खुश ह्वैकी भात रम्दैगी,
खै सकदी काफ्ली, तोरी दगडी !
अगर सुखी रण चान्दी त,
ब्यो कैलू जब त करी सिर्फ
अपणा गढ़वालै छोरी दगडी !!


पर मिन अपणा बुबै की
एक नि सुणी तबारी,
अर ब्यो करीक लायुं घौर
स्याणी शहरी-देशी  ब्वारी,
अब याद आंदी मी तै
अपणा बुबाजी की बात,
सुबेर-शाम जब बोंज मा
पड़दी जोर की लात,
पछ्तैगी भी कुछ नि मिल्न
अब यीं चटोरी दगडी,
खोपड़ी खजे  जु ब्यो नि करी
कै  गढ़वाली छोरी दगडी !!

सार : इस हास्य कविता का हिन्दी सार यह है कि मेरी जवानी के दिनों में  मेरे  पिताजी  ने मुझे सीख दी थी कि बेटा तमाम उम्र तेरे आगे पडी है, तू  इश्क-मुश्क भले ही  जिस भी लडकी के साथ लड़ा किन्तु शादी सिर्फ अपने मुल्क की  लडकी के साथ ही करना ! मगर हमने पिताजी की बात नहीं  मानी और ....... अब पछताए होत क्या......!

Sunday, May 30, 2010

औखाणु !

मेरु नौनू बीस पाथा सौक्याल्दु भै, पर नि सौक सक्दु दोण,
तु तनि टर्कणि ना गाड, न बुबन ब्याण, अर न भुला होण !

रात देरि सि घौर आन्दु त वा मी कुणि नि दरवाजु खोल्दी ,
क्य बोल्ण, जै बौ कु बडु भरोसु छौ, स्ये दिदा-दिदा बोल्दी !

पतनि ई निर्भागी जलन्खोर बुढ्डी किलै ब्वारी कि खैर खान्दि,
सासु बोल्णी छै कि नाक जुनि होन्दु त ब्वारी गू भी खै जान्दि !

सासु खिजेन्दी ब्वारी तै, तु आटु गुन्ददी दा किलै हिलान्दि,
ब्वारी बोल्दी निर्भैगी सासू, तु करयाँ काम मा किलै नचरान्दि !

ब्वारी जब कभी नहेण कु जान्दि त सासु आप्णु गिचु मोड्दी,
क्य त ब्वारी पाणि नि चौदि, अर चौन्दि च त धारु नि छोड्दी !


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एक गढ़वाली गजल नुमा कविता - औचाट !

पेण क्या, सूखी ग्याई, छ्वाया-गदनियों कू पाणी यख,
सूनी उदास बौंड- ओब्रियों, लगदु नी च यु प्राणि यख !
दिन काट्याल्दुं त्वे जाग्दु, रात काटणि मुश्किल होंदी,
ऐजा सुहा अब जल्दी घौर, इ जिकुड़ी च टपराणी यख !!

ससुराजी का हुक्का कु गुड-गुड, रात-दिन डिंडाला मा,
खाणे की निखाणी रांदी, चा का भौर कल्च्वाणी यख !
खिज्यां रंदू चिठ्ठी लेख्णु, बिज्यां तेरा सुपिना देख्णु,
सुबेर ज़रा नींद आंदी त, भैर सासू रंदी बरणाणी यख!!

जौ भी कख इनि रूडियों की भरी उदास दोफ्र्यों मा,
बौण कू क्वी दगुडू नी च, पुंगडियों नी च धाणी यख !
सोचदी रंदू कब तू आलू, त्वेमा दिल की खैरी लालू ,
आख्यों मा छ्ल्काणु रांदु, क्वांसा मन बत्वाणि यख !!

ये घर मा मेरी क्वी नि धर्दु,यख रणों कु ज्यू नि कर्दु,
दिन-रात गाड्नु रंदू त्वे दगडी, जाणेकि स्याणी यख !
दयूर-नन्द गुणदा नींन, सै-ससुरा मेरी सुणदा नींन ,
त्वी बतौ कब तलक मी संभालू अपणी बाणी यख!!

Sunday, May 9, 2010

गौ की याद !







गर्मियों की छुट्टियों मा,
गाड -गदन्यों फुण्ड
सुदि रन्दा छाँ ॠण्णाँ।

क्य वक्त छौ उ भी

जब उन्द शहरु  बिटिक,
अपणा गौं  जाण कु
दिन रन्दा छाँ  गिण्णाँ॥

अब त बस

दिल का जख्मु तै,
वक्त बेवक्त याद करीक

खुजाणां रैन्दा  ।

बचपन की वा

गौं की यादू  तै,
सेंदा-जाग्द आंखियों मा

रिंगाणां रैन्दा ॥

रूड्यौं का दिनु मा 

पाखा-धारु मा ,
कुऴैंकी  डालियों मा

छेंति-मेला रंदा छा तिण्णाँ।

क्य वक्त छौ उ भी

जब उन्द शहरु बिटिक,
गौं-पाहड जाण कु
दिन रन्दा छाँ गिण्णाँ॥


छोड-पुंग्डी जथ्गा छै
बांजा पडीं छन,
कूडी ज्वा छै

वा खन्द्वार ह्वैगि।

बेटी-ब्वारी, नौना-बाला

जू देश गै छा,
ऊँ  पर देशियों की अन्द्वार ऐगि॥

किन्गोडै की बोटिल्यों,

हिसरै की झाडियो मा,
हिसर-किन्गोड

रन्दा छा बिण्णाँ।

क्य वक्त छौ उ  भी

जब उन्द शहरु बिटिक,
अपणा गौं  जाण कु
दिन रन्दा छाँ गिण्णाँ॥

क्य रैंदा छाँ गांणाँ   

छाजा-निमदारि,
सैतीर पर घेन्टुडियों का घोल ।


सुबेर उठि-उठीक,

धुर्पाला-मुन्डेरि मा
छेऩ्टुळा,घुघुतियों का बोल॥


सेरा  की पुन्ग्डियों मा
रामलीला का दिनु,
ज्वान छोरा क्या
रन्दा छा भिण्णाँ।


क्य वक्त छौ उ भी
जब देशु-शहरु बिटिक,
गौं-पाहड जाण कु
दिन रन्दा छाँ गिण्णाँ ॥

डांडियों मा कुयेड़ी त 

अब भी लग्दी ह्वाली ,
धारा का पाणि की धार

अब भी बग्दी ह्वाली।

बथौन कुलैंकि डालि

अब भी हिल्दिन,
गौंमा पर कखी पर

मन्खि नि मिल्दिन॥

कख  कु उतरि ह्वालू 

गौ का जवान-स्याणा  सभी, 
देखि-देखीक
आंखि रन्दा छा मिण्णाँ।

क्य वक्त छौ उ भी

जब देशु-शहरु बिटीक,
अपणा गौं जाण कु
दिन रन्दा छां गिण्णाँ॥

उपरोक्त गढ़वाली कविता का सारांश यह है कि बहुत साल पहले जब गाँव हमारे भरे पूरे थे, वहाँ खूब चहल-पहल होती थी, तो अपनों के पास गर्मियों की छुट्टियां बिताने जाने के लिए बहुत पहले से दिन गिनने शुरू कर देते थे , लेकिन अब लोग रोजी रोटी की तलाश में उन ख़ूबसूरत सुदूर पहाडी गाँवों से पलायन कर गए है ! गाँव के गाँव खाली पड़े है, दिल बहुत होता  है अपने उस सुदूर अंचल की उन छांवो में जाने को, मगर वहाँ जायेंगे किसके पास ?

Saturday, May 1, 2010

बोडा फोन !

बोडीन पूछी,
ज्यू तेरु सी हाथ पकड़्यूं
बबा सी क्या  दौन च  ?
बोडी, यो  बोडा-फोन  च !!

हे बबा, तेरा बोडा मरयां त
चार साल ह्वेय्गिन,
वून सी फोन कबारी दिनी त्वे तै ?
बोडी यु बोडाजी कु नी दिन्यु,
यी बोडा-फ़ोन च !
बबा तू तन ना डौर
नि छौ में त्वै मू कै लुछ्णु,
सी कै बोडा कू फोन च ?
मैं त बस यी छौ त्वे पुछ्णु !!

Thursday, April 22, 2010

ज्वानि

तैं स्वाणी मुखडी तैं तन उदंकार न कर ,
आंखियों का भौं तैं इना ढंगार न कर !
घास-लाखुडूकू तैं तू अन्धेरा मा जाली,
ब्यान्सिरी लेकी तै तब पंधेरा मा जाली !
अपणी ज्वानी तैं तू तन बेकार न कर ,
तैं स्वाणी मुखडी तैं तन उदंकार न कर !
बौण-घौर, कूड़ी-पुंगडी सब्बी यखी छुटि जाण,
तेरी तों लापस्योंन फिर केभी काम नि आण !
तों न्याणी गलोड्यों तै तन अंगार न कर,
तैं स्वाणी मुखडी तैं तन उदंकार न कर !

Sunday, March 21, 2010

दो गढवाली क्षणिकायें

परचेत!

कन्धा मा,
बंठा-गागर लीक,
थक जान्दु
सारी-सारीक,
दूर गौंगा धारा बिटीक,
दिन-दोफरी पाणी की घेत ।
न क्वी वै तै पुछ्दु,
और न उ आफ़ु पेन्दु,
दिनभर,
प्यासू ही रै जान्दु,
खडौण्या,निर्भैगी लाटु परचेत ॥

़़़़़़़़
सिफै !

मां भी छोडिगी छै,
लुकारी डेली मा धारीक
कब तलकै
ब्वै रांड भी,
इनि दशा मा खैचू,
गौ वालौन भी.
धीरु-धीरु,
बन्द करली छौ
देण वी तै पैंछु,
और तब वू,
बचपन बिटिकी ज्वानि तक,
लुकारी डेल्यों मा,
भूखौ,
रात-दिन सिपाणू रै।
अर इन्नी सिपै-सिपैग,
एकदिन
वू बणिगे सिफै ॥