दिनांक: ०१/०८/२०१५
आदरणीय उड्यार जी,
सादर चरण स्पर्श🙏 सर्वप्रथम आत्मरक्षा बाद को अन्य कार्य हैं।
मैं यहाँ पर सपरिवार कुशल से हूँ और आशा करता हूँ कि आप भी वहाँ पर हीसर, किन्गोड़ और तुंग के बोटळौ तथा बांज और चीड़ के दरख्तों के बीच कुशल-मंगल होंगे।
मेरे गांव के बुजुर्ग उड्यार जी, जबसे उत्तराखंड से लौटा हूँ,बस एक अजीब सी आत्मग्लानि मुझे अंदर ही अंदर खाए जा रही है। और उसी का नतीजा है कि मैं यह खुला पत्र आपको सम्बोधित कर लिख रहा हूँ ।यह जानते हुए कि आप न सिर्फ सहृदय और परोपकारी है अपितु क्षमाशील भी है, और अगर कहीं भी मैं गलत हूंगा तो आप मुझे अवश्य ही माफ़ कर दोगे।
आत्मीय उड्यार जी, आप बहुत बुजुर्ग है और इस बात को शायद मेरे से भी ज्यादा भली भाँती समझते होंगे कि अपना देश, गांव-मुल्क अपना ही होता है। और खासकर वह मुल्क, जहां हम अपना अधिकाँश बचपन का समय अपने प्रियजनों और बाल सखाओं/सखियों के साथ व्यतीत कर चुके हों, शायद जान से भी ज्यादा प्यारा होता है। इंसान भले ही जिंदगी के लक्षित तमाम मुकाम क्यों न हासिल कर ले, किन्तु अपने परिवार, प्रियजनों की ही भांति देर-सबेर उस गांव-मुल्क की याद उसे वक्त-बेवक्त विचलित कर बैठती है, जो कभी उसका बचपन जीने का आधार था, और जब फुर्सत मिले, वह उससे मिलने के बहाने ढूढ़ने लगता है।
ऐसा ही कुछ, गत माह मैं भी उत्तराखंड स्थित अपने गाँव नौगाड से मिलने गया था। रात को श्रीनगर रुका और सुबह जब अपने गाँव के लिए निकला तो करीब १० , १०:३0 बजे पहाड़ पर मौसम ने अचानक करवट ली और तेज बारिश शुरू हो गई। अपने गाँव और आपके समीप ही था कि गाडी का टायर पंक्चर हो गया। गुस्से में उस वक्त तो उसे अपना दुर्भाग्य समझ किस्मत को बहुत कोस रहा था और अपना माथा पीट रहा था, परन्तु शीघ्र ही मैं उसे अपना सौभाग्य समझने लगा कि इसी बहाने मुझे बहुत साल बाद आपके दर्शन हो गए थे। अकेला होता तो शायद गाडी में ही बैठकर बारिश के बंद होने का इन्तजार करता, किन्तु बच्चे साथ में होने और भूस्खलन के खतरे की वजह से दिमाग पर विकल्प चुनने का जोर बढ़ने लगा था। गाडी के शीशो पर बारिश की वजह से बहुत आदर्ता होने की वजह से बाहर दृश्य:शून्यता थी किंतु दीमागी उलझन की बजह से मैं उस तेज बारिश में ही गाड़ी से बाहर आकर इधर-उधर नजर दौड़ाने लगा था। और तभी मुझे आप नजर आ गए।
आपको भी शायद याद हो या न हो कि मैंने 'आव देखा न ताव' और बच्चो को तुरंत गाडी छोड़ने को कहा और हम सभी उस तेज मूसलाधार बारिश से बचने के लिए आपकी तरफ भागे चले आये थे। आपकी चौखट पर पहुँचने से पहले मेरी धर्मपत्नी का पैर फिसला था और आपने अपनी वयोवृद्ध सदी हुई मधुर आवाज में कहा था , "अंक्वैकी, मेसी परै बेटा" (संभलकर, आराम से, बेटा ) ! आपकी शरण में कुछ पल ठहरने के बाद हालांकि हम लोग गंतव्य को निकल चले थे किन्तु मैं यह कैसे भूल सकता था कि यह वही पवित्र स्थान मेरे लिए अपने घर से ज्यादा चिर परिचित था। वो बात और थी कि सभ्यता और बदलाव की आंधी में चूर, मैं भी आपके समक्ष यह दिखाने का नाटक कर रहा था कि मैं तो तड़क-भड़क में रहने वाला एक शहरी बाबू हूँ।
नि:संदेह, आप मुझे इतने सालों बाद कैसे पहचानते ? किन्तु, वो मेरी मूर्खता और स्वार्थ था कि मैंने जान-बूझकर अपना परिचय आपको नहीं दिया। क्योंकि एक डर मुझे अंदर से खाए जा रहा था कि कहीं हमारे ये पहाड़ी बुड्या जी, मेरी बचपन की पोल मेरे परिवार, मेरे बच्चो के सामने न खोल दें। अंग्रेजी में एक कहावत है " ओल्ड हैबिट्स डाई हार्ड" अर्थात पुरानी आदतें आसानी से नहीं जाती और वो मेरे से भी जुदा नहीं हो पाई। गलतियां और बेवकूफियां करने के बाद जो डर बचपन में लगा रहता था, वो आज भी मेरे अंदर मौजूद है।
कैसे भूल सकता हूँ कि बचपन में जंगल में गाय, बकरियों को चुंगाते वक्त जब कभी अचानक बारिश आ जाती या फिर तेज धूप पड़ रही होती तो मैं अपने बाल-सखाओं संग तुरंत आपकी शरण में आ जाता था। और तो और, जिस दिन स्कूल जाने का मूढ़ नही होता था, पूरी मंडली छुपने (लूक्णौ तै, जिसको यहां शहर के सभ्य लोगो की भाषा में 'बँक मारना' कहते है ) के लिए आपकी शरण में ही आते थे। मुझे याद है, नटखट दोस्तों संग हम कच्चे केले का पूरा फिर्क (डांठ ) गांववालों के बगीचों से चुराकर आप ही के आँगन में गड्डा खोदकर पकाने हेतु रख देते थे, उसके ऊपर चीढ के पिरूल (पिल्टू) को जलाकर और फिर छुटटी के दिन पूरी मंडली गाय, बकरिया चुगाने के बहाने आकर, ठाठ से आपकी छत्र-छाया मे बैठ, पके केलों का आनंद लेती थी।
आदरणीय उड्यार जी, आपको शायद यह भी याद होगा कि बचपन के अगले चरण और चढ़ती जवानी के शुरूआती दिनों में मैंने अपनी अपरिपक्वता की मिशाल आपके समक्ष पेश कर अपना पहला प्यार ढूढ़ने की पहली असफल कोशिश भी आप ही की छत्र-छाया में की थी, हालांकि वह परवान नहीं चढ़ पाया था। अपने पैरों पर खड़े होने के अरमान लिए जब मैं पहली बार गाँव से निकला था तो 'दोपहर के गेट' ( दोपहर की बस) की खिड़की से नम पलकों से मैंने अपने गाँव, खलियान और जंगल के साथ-साथ आपको भी निहारा था। पिछले महीने आपसे अचानक हुए मिलन और आपको खुद का परिचय न देने की बेवकूफी पर मुझे अपने ऊपर इतना क्रोध आया और आत्मग्लानि हुई कि मैं अपनी आत्मा को कई रोज तक बार-बार धिक्कारने से नहीं चूका।
मुझे आप पर भी गुस्सा आ रहा था कि जिसतरह उस समय जब मैं अविवाहित था और शहर से बहुत समय तक अपने गाँव छुट्टी लेकर नहीं जाता था तो मेरी दादी तुरंत मुझे पत्र लिखकर पूछती थी कि ;
सूट-बूटु की चमचम
अर लैण-खाण का भौर,
भिन्डी साल ह्वैग्या त्वे
परदेश गयां छोरा,
कब आलू चुचा घौर।
सुद्दी-मुद्दी की श्याणी ,
ना खै-कमैकी जाणी,
दुनिया की देखा-देखी
अर पड़ोस्यों की सौर ,……
भिन्डी साल ह्वैग्या त्वे
परदेश गयां छोरा,
कब आलु चुचा घौर...।।
और मैं जब मौका मिलता छुट्टी लेकर गाँव का रुख कर लेता था। मुझे क्रोध आपपर इस बात का भी आया कि भले ही मैंने आपको भुला दिया हो किन्तु आपने क्यों नहीं कभी मुझे कोई खत लिखा ? खैर, मैं आशा करता हूँ कि आप मुझे अवश्य क्षमा कर देंगे। आप अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना , पहाड़ों में आजकल बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएं बहुत बढ़ गई है, अत: आप अपनी संजीदगी से रहना । अबके जब गाँव आऊंगा तो आपके दर्शनार्थ अवश्य आऊंगा। इसी वादे के साथ,
आपके अहसानो तले दबा
आपका अपना ही
-एक अहसान फरामोश पहाड़ी !
आपका प्रकाश।
गोदियाल जी बहुत बढ़िया वर्णन कार आपल उड्यार जी कू। प्राय: हर गांवकि उूं जगों या उड्यार हुंदिना जख लौड़ा-बाला गोर चराणौ जंदिन।
ReplyDeleteआभार विकेश जी। कभी-कभार पुरानी यादे मन के उदगारों को बाहर फेंक देती है :-)
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा ..
ReplyDeleteमुझे भी अपना लैली उड्यार याद आया है कभी जरूर लिखूंगी।