गढ़वाली कविता : - पहाड़ी शेर !
घरवाळी का अग्नै
जू ह्वै जौ ढेर,
वु पहाड़ी शेर।
बाघ बुल्दन लोग
तख भी वै तैं,
तख भी वै तैं,
कुछ डब्राण्या-कब्रांण्या,
कुछ चौंर्या बाघ........
घरवाळी
गुगरांदी जब
त गिचा बिटिकी तैका
निकुल्दु झाग.....
गिचु पोंछींकी
गिचु पोंछींकी
मैदान मा ऐकी तै
जू डट जौ फेर,
जू डट जौ फेर,
वु पहाड़ी शेर।
तैतैं खैंडणौ कु
बिजां शौक़ च,
बिजां शौक़ च,
तैडू,पिंडाळु कुछ भी ......
जब कुछ न मिळु त
पड़ोस्योकि ही खैंडण लग्दु …....
उन्त काळु सी रैंदु बण्यू
पर टिंचरी का द्वी पैग
पेट उन्द गै नी कि
झट्ट भगवतगीता कु
पाठ सुणौंण लग्दु .......
पी-पीकी बोंज पिचक्यां रैंदा
पर भकांई रैंदी गेर,
वु पहाड़ी शेर।
सुबेर उठी-उठीकी बीड़ी खुजाण
यत फिर हुक्का गुड़गुड़ाण,
यत फिर हुक्का गुड़गुड़ाण,
फ़्योर लुट्ट्या खुजाण,
निराळी दिनचर्या तैकि……
दगड़्यों दगड़ी अनपैट ह्वे जांदु
तुरंत नाश्ता-पाणी खैकि…….
जनानी की डॉरो
दगड़्यों कै यख रात बितौंण
दगड़्यों कै यख रात बितौंण
जु ह्वे जौ भिन्डी अबेर,
वु पहाड़ी शेर।
सुंदर कविता च....
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