Saturday, December 13, 2014

पहाड़ी शेर


गढ़वाली कविता : - पहाड़ी शेर !
घरवाळी का अग्नै 
जू ह्वै जौ ढेर, 
वु पहाड़ी शेर।  


बाघ बुल्दन लोग 
तख  भी  वै तैं,

कुछ डब्राण्या-कब्रांण्या,
कुछ चौंर्या बाघ........
घरवाळी 
गुगरांदी जब 

त गिचा बिटिकी तैका 
निकुल्दु झाग.....
गिचु पोंछींकी 
मैदान मा ऐकी तै   
जू डट जौ फेर,
वु पहाड़ी शेर।  



 तैतैं खैंडणौ कु 
बिजां शौक़ च,
       तैडू,पिंडाळु कुछ भी ......  
जब कुछ न मिळु त
          पड़ोस्योकि ही खैंडण लग्दु …....  
न्त काळु सी रैंदु बण्यू  
पर टिंचरी का द्वी पैग 
पेट उन्द गै नी कि  
झट्ट भगवतगीता कु 
पाठ सुणौंण लग्दु .......
पी-पीकी बोंज पिचक्यां  रैंदा 
पर भकांई रैंदी गेर,
वु पहाड़ी शेर।   


सुबेर उठी-उठीकी बीड़ी खुजा
यत फिर हुक्का गुड़गुड़ाण,
फ़्योर लुट्ट्या खुजाण,
       निराळी दिनचर्या तैकि……   
दगड़्यों दगड़ी अनपैट ह्वे जांदु
तुरंत नाश्ता-पाणी खैकि…….
जनानी की डॉरो 
दगड़्यों  कै यख रात बितौंण  
जु ह्वे जौ भिन्डी अबेर,
 वु पहाड़ी शेर।

Friday, December 12, 2014

छ्वीं











भौं कखि नी लुक्याकर मी देखिकी,
मिन तेरी तर्फां देखुणु छोड़ियाली,
जिकुडी तैं जथगा भी चसु लागु, 
मिन आँखि सेकुणु छोड़ियाली। 
त्वे तैं कख - कख नी जाँण पड़दु 
पोस्टमैना पिछ्नै, मी जाणदु छौंऊ,
मेरा बाना तू भिन्डी ना पिल्सी, 
मिन चिठ्ठी लेखणु छोड़ियाली।।     

Thursday, December 11, 2014

'परचेत' !









भिन्डी टका-पैंसा मेटणैकी अत्बताट मा,
अपणा मीन सब्बी छोड्या आद्दबाट मा।  

क्वी छोड्या सुब्कदा कखि क्वी लराट् मा,   
अपणा मीन सब्बी छोड्या आद्दबाट मा। 

हाथु-खुटून सन्कोणा रैन ज्यू कणाट मा,    
खांस्दा-कणांदा दाना छोड्या बब्डाट मा ,

गौं सयाणा, अपणा-विराणा गुमणाट मा,  
अपणा मीन सब्बी छोड्या आद्दबाट मा।  

ह्यूंद बीती, बस्ग्याल ऐ  सर्ग गग्डाट मा,    
माँजी बाट्टु हेरदी रै घुंडाभाचि खाट मा, 

नी सूंणी कैकी ऊंद जाणै की रंगताट मा,
अपणा मीन सब्बी छोड्या आद्दबाट मा। 


रौली-बौळयों कू ठण्डु पाणी गम्ग्याट मा,
डांडी- कान्ठ्यों कू बथों रैगी स्वुंस्याट मा,   

रै चौक भैंसी कू किड़ाट ,गौड़ी अड़ाट मा, 
अपणा मीन सब्बी छोड्या आद्दबाट मा। 

यख़ दिन बेचैन मन्ख्यों का गब्लाट मा,
रातू नीँद औंदी नी च कुकुरा लुल्याट मा,

याद औंदी काफ्ली,कोदै रोटि कब्लाट मा,
अपणा मीन सब्बी छोड्या आद्दबाट मा।

पहाड़ी ढुङ्गा,गारा भूल्यूँ  शहरी माटा मा,  
यख अपणी ही आवाज भूल्यूं चब्लाट मा, 

आफु भी सुखि रैनी सक्युँ ठाठ-बाट मा, 
अपणा मीन सब्बी छोड्या आद्दबाट मा।

Friday, September 12, 2014

वक्त










जबारी छै स्या छोट्टी ब्वारी, 
खेल्दी छै स्या मी दग्डी गारी। 
जांदु बौण कबारी घास भारी, 
अर कबारी धाण गुठेरा,सारी।।  

जब ह्वैगी ब्वारी थोड़ा ज्वान,
आई वीं भी थोड़ा माया ज्ञान।   
पैसा-टकों मा बैठी वींकू ध्यान, 
अर भाग्युं परदेश मी भग्यान।।

ह्वैग्या अद्ध-बुढ़ेड़ अबकी बारी,
वी खेल ह्वैगी फिर सी जारी।   
यत द्वी पौड़ी जाँदा टोप मारी,
यत खेल्दी रैदां द्वी बट्टी गारी।।    

Saturday, August 30, 2014

स्याणि










इनि बांदों म की बांद तू
जन औंसी की काळी रात
पुरणमासी कू चाँद  तू, 
फैलीं च संगती मुल्क़ मा य हाम।

तेरी स्य्  स्वांणी मुखड़ी ख़ास
जन मेरा गढ़देशै की
ह्यू सी लदगद ह्यूंदया मास
सैरी हिवाळी डांडी हो तमाम।

अर मी हरवक्त बस, 
ई स्याणि करदि  रैंदु 
काश, मैं वूँ रौंत्याली डांड्यों पर 
अफु सैणि इन चमकैंदु   
जन क्वी व्याखुनिकु सीलु घाम।