एक छोटिसी उत्तराखंडी कविता :
गैरसैंण पर नेता जी की सफै !
हाँ, हमतै दून बिटिकी लगाव छ,
परन्तु पाड़ों से थोड़े हमतै "वैर" ठैरा,
अब हम भी क्य करां ...........
वीं जगा राजधानी ही नि जाण चांदि ,
जै जगा सैंण ही 'गैर' ठैरा।
अरे ग्याड़ों, तुम क्य जाणदै, हम जाणदां .......
गुजारु नी च हमारु वांका "वगैर" ठैरा,
चुनौ लड़णों क त हमन वक्खी जाण,
जु नि जाला वख त हमरी "खैर" ठैरा।
गैरसैंण पर नेता जी की सफै !
हाँ, हमतै दून बिटिकी लगाव छ,
परन्तु पाड़ों से थोड़े हमतै "वैर" ठैरा,
अब हम भी क्य करां ...........
वीं जगा राजधानी ही नि जाण चांदि ,
जै जगा सैंण ही 'गैर' ठैरा।
अरे ग्याड़ों, तुम क्य जाणदै, हम जाणदां .......
गुजारु नी च हमारु वांका "वगैर" ठैरा,
चुनौ लड़णों क त हमन वक्खी जाण,
जु नि जाला वख त हमरी "खैर" ठैरा।
अब हम भी क्य करां ...........
वीं जगा राजधानी ही नि जाण चांदि ,
जै जगा सैंण ही 'गैर' ठैरा।
भितरा-भीतरी त हम भी बगोळ्या छां,
पर बथै नि सक्दां "भैर" ठैरा ,
पांच साल त खैंचि ही द्याळा
पर वांका बाद क्य ह्वालु, यू "डैर" ठैरा।
अब हम भी क्य करां ...........
वीं जगा राजधानी ही नि जाण चांदि ,
जै जगा सैंण ही 'गैर' ठैरा।
बल वा पिकनिक, सपाटै की जगा च,
ये वास्ता हर साल जांदां करनौ "सैर" ठैरा,
फिर भी वख जाणै की कुछ मन्ख्योंकि
पतानि किलै गाडिच या "ळैर" ठैरा।
अब हम भी क्य करां ...........
वीं जगा राजधानी ही नि जाण चांदि ,
जै जगा सैंण ही 'गैर' ठैरा।
-पी सी गोदियाल 'परचेत'
वीं जगा राजधानी ही नि जाण चांदि ,
जै जगा सैंण ही 'गैर' ठैरा।
भितरा-भीतरी त हम भी बगोळ्या छां,
पर बथै नि सक्दां "भैर" ठैरा ,
पांच साल त खैंचि ही द्याळा
पर वांका बाद क्य ह्वालु, यू "डैर" ठैरा।
अब हम भी क्य करां ...........
वीं जगा राजधानी ही नि जाण चांदि ,
जै जगा सैंण ही 'गैर' ठैरा।
बल वा पिकनिक, सपाटै की जगा च,
ये वास्ता हर साल जांदां करनौ "सैर" ठैरा,
फिर भी वख जाणै की कुछ मन्ख्योंकि
पतानि किलै गाडिच या "ळैर" ठैरा।
अब हम भी क्य करां ...........
वीं जगा राजधानी ही नि जाण चांदि ,
जै जगा सैंण ही 'गैर' ठैरा।
-पी सी गोदियाल 'परचेत'