Sunday, April 17, 2011

सबक !




अंजिनीसैंण, टिहरी गढ़वाल के प्रसिद्द चन्द्रवदनी मंदिर के समीप का इलाका. इसी क्षेत्र के पुजारगाँव के सोहन लाल और उनके भाई सुकारू दास का अपनी वाद्य-संस्कृति को बचाए रखने का यह प्रयास नितांत सराहनीय प्रयास है. आज जहां हम लोग पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में सराबोर होकर नित अपनी संस्कृति को सिर्फ म्यूजियम की एक धरोहर तक सीमित करने में तुले है, वहीं कुछ लोग ऐसे भी है जो तमाम विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए भी इसे बचाए रखने की जी तोड़ कोशिश कर रहे है. अमेरिका की सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी के संगीत के प्रोफ़ेसर स्टीफन एक ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी इंसान है जो लुप्त होती संस्कृतियों को बचाए रखने में गहन दिलचस्पी रखते है. वे जब पहलीबार उत्तराखंड भ्रमण पर आये तो यहाँ के परम्परागत वाद्य-यंत्रों, ढोल-दमाऊ,मुसिक्बाजा, हुडकी,सिणे की मधुर तानों से मुग्ध हुए वगैर न रह सके. वे फिर से उत्तराखंड घूमने आये और महीनो तक उन्होंने इन वाद्य-यंत्रों को बजाना सीखा. गाँव में रहकर ही सिर्फ स्थानीय भोजन जैसे मंडवे की रोटी, झंगोरा, और कंडाली की काफ्ली (बिच्छु घास की हरी सब्जी ) खाकर ही मग्न रहे. और अब वे उत्तराखंड की इस वाद्य-संस्कृति को अमेरिका भी ले जाना चाहते है. उत्तराखंड और देशवासियों के लिए जहां एक ओर यह गौरव का विषय है,वहीं दूसरी ओर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह भी हमारे समक्ष छोड़े जा रहा है कि क्या हम गुलाम मानसिकता वाले भारतीयों को हर चीज के पेटेंट के लिए हमेशा पश्चिम पर ही निर्भर रहना पडेगा ?


आइये, अब आपको कुछ मजेदारा वाकये इन हमारे वाद्य-यंत्रो के बारे में बताता हूँ ;


-बचपन में जब कभी दादा-दादी के पास जब गाँव में रहता था, तो घर-गाँव के सामने के अलग-अलग पहाडी रास्तों पर जब एक से अधिक बारातें निकलती थी , तो गाँव के बड़े-बुजुर्ग बताया करते थे कि अलग-अलग बारातों का वाद्य-यंत्रों से नेतृत्व कर रहे औजी (ढोल-दमाऊ वादक ) लोगो के बीच वाद्य-युद्ध चलता था. जिसकी भाषा सिर्फ वे ही लोग समझ पाते थे और खुदानाखास्ता अगर दो अलग-अलग पहाडी पगडंडियों से निकल रही बाराते कहीं आगे चलकर दोनों पगडंडियों के आपस में मिल जाने से आमने-सामने आ गई तो कभी-कभार इन औजी लोगो के बीच मलयुद्ध भी छिड़ जाता था. आज तो सामूहिक विवाहों में कई-कई दुल्हे-दुल्हन एक साथ बैठे मिल जायेंगे, मगर तब अगर किसी रास्ते पर जब दो बाराते इकट्ठा हो जाती थी तो दुल्हे-दुल्हन का मुंह इसलिए ढका जाता था ताकि एक दुल्हा दूसरे दुल्हे को और एक दुल्हन दूसरी दुल्हन को न देख सके. इसके पीछे की मान्यता यह थी कि सिर्फ एक ही नारायण होता है, और इसीलिए दुल्हे को वर-नारायण कहा जाता है.


-कहीं किसी पहाडी गाँव में वाद्य-यंत्रों को बजाया जा रहा था. जब हुडकी बजती थी तो दर्शक दीर्घा में बैठा एक व्यक्ति बीच-बीच में उओं-उओं की आवाज निकाल कर मुंडी हिला अपनी नाखुशी जाहिर कर रहा था. दर्शक दीर्घा में ही बैठे एक अंग्रेज ने जब इस बात को नोट किया तो उससे रहा न गया और उसने उस व्यक्ति से उसकी नाखुशी का कारण पूछा . उस व्यक्ति ने बताया कि हुडकी बजाने वाले व्यक्ति के हाथ में शायद कोई डिफेक्ट है, क्योंकि हुडकी की लय बीच में टूट रही है. जब अंग्रेज ने इस बात को परखना चाहा तो उसने देखा कि सचमुच हुडकी बजाने वाले का अंगूठा नहीं था. कहने का आशय यह है कि वह व्यक्ति इस कदर उस वाद-यंत्र का जानकार था कि उसने सिर्फ धुन से ही यह भांप लिया कि बजाने वाले के हाथ में कोई कमी है.


-गाँव के पदान जी का लड़का वाद्य-यंत्र भौकारा (नगाड़ा ) बजाने में इतना माहिर था कि जब कभी वह शहर से छुट्टी अपने गाँव जाता तो पहाडी गाँवों में घर दूर-दूर छिटके होने की वजह से गाँव वालों को यह बताने के लिए कि मैं भी गाँव आया हुआ हूँ, उस वाद्य-यंत्र को जब बजाता था तो गाँव के हर निवासी के कानो में जब उस वाद्य-यंत्र की आवाज पड़ती तो उसके मुंह से यही निकलता था कि पदान जी का लड़का छुट्टी आ गया है .


अब चलते-चलते एक पहाडी चुटकिला; गाँव में उपाणों (पिस्सुओं) का आतंक था, सेना का एक कम्पौंडर साहब, दो महीने की छुट्टी गाँव जा रहा था, तो बीच के गाँव के कुछ लोग जो उसे जानते थे उन्होंने उसे घेर लिया और कहा कि भैया, आप तो डाक्टर है, इन पिस्सुओं से निजात पाने की कोई तो दवा होगी आपके पास. कम्पौंडर साहब ने थोड़ा सोचा और फिर झट से जेब से अपनी डायरी निकाल उसके पन्नो पर कुछ लिखकर, उसकी पुडिया बनाकर हर एक गाँव वाले को पकड़ा दी और कहा कि घर जाकर ही इसे खोलना और कोई भी अपनी पुडिया एक-दूसरे को नहीं दिखाएगा. वे लोग खुशी-खुशी फटा-फट अपने घरों में पहुंचे और उन्होंने पुडिया खोली तो उस पर लिखा था " चट पकड़ी, पट मारी ".


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इससे जुडी ताजा खबर :दैनिक जागरण के सौजन्य से :


पुजारगांव के सोहनलाल व सुकारुदास की हसरतों को जल्द पंख मिलने जा रहे हैं। एक सितंबर को दोनों भाई अमेरिका के लिए रवाना हो जाएंगे। उन्हें अपने साथ ले जाने को सिनसिनाटी विवि के प्रो. स्टीफन फियोल अपनी पत्नी के साथ पुजार गांव पहुंचे गए हैं। गांव पहुंचने पर ग्रामीणों ने उनका गर्मजोशी के साथ स्वागत किया।

शनिवार देर शाम जब अमेरिका के सिनसिनाटी विवि के प्रो. स्टीफन फियोल अपनी पत्नी मीरा मूर्ति के साथ पुजारगांव पहुंचे तो ग्रामीणों ने पारंपरिक तरीके से उनका स्वागत किया। रविवार को सोहन लाल, सुकारु दास, स्टीफन व उनकी पत्नी मीरा ने ढोल-दमाऊं व मोछंग के साथ चैती गायन का अभ्यास भी किया। स्टीफन ने ढोल व मोछंग की सुंदर धुनें बजाकर ग्रामीणों को मंत्रमुग्ध कर दिया।

स्टीफन ने बताया कि जल्द ही सोहन लाल व सुकारु दास दिल्ली में वीजा प्राप्त करने के लिए जरूरी प्रक्रिया में भाग लेंगे। एक सितंबर को चारों लोग अमेरिका के लिए रवाना हो जाएंगे। उन्होंने बताया कि कार्यक्रम में परिवर्तन किया गया है। तीन माह के बजाय दोनों भाई पांच सप्ताह तक अमेरिका में रहेंगे। इस दौरान वे सिनसिनाटी विवि के संगीत के छात्रों को ढोल सागर, विभिन्न गायन शैलियों व नृत्य की जानकारी भी देंगे। इसके अतिरिक्त वे दोनों विवि के एक बड़े कार्यक्रम में भी प्रस्तुति देंगे। स्टीफन व उनकी पत्नी भी वादन व गायन में उनका सहयोग करेंगे।

ग्रामीणों को किया मंत्रमुग्ध

अमेरिकी प्रो. स्टीफन फियोल व उनकी पत्नी मीरा मूर्ति ने चैती गायन व ढोल वादन समेत विभिन्न प्रस्तुतियां देकर ग्रामीणों को अपना दीवाना बना दिया। फियोल ने सुप्रसिद्ध गढ़वाली गायक नरेंद्र सिंह नेगी के कई गीत सुनाए। विदेशी नागरिक को गढ़वाली गीत गाते देखकर ग्रामीण आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सके।

5 comments:

  1. गोंदियल साहब बहुत अच्छी जानकारी दी. लोग बाग़ सात समुंदर पार से आकार हमारी संस्कृति से प्रभावित हो रहे हैं और हमारे अपने बच्चे ही खुद को पहाड़ी कहने में शर्म महसूस करते हैं. पहाड़ में पैदा हुआ और पला बड़ा नवयुवक मैदानी इलाकों में आकार अपनी भाषा अपनी संस्कृति से ऐसे दुरी बना लेता है मानो उसका कभी भी इससे वास्ता ही न रहा हो. मुझे बहुत से ऐसे लोग मिले हैं जिनका चहेरा मोहरा और बोलने का लहजा उनके पहाड़ी होने की साफ़ साफ़ चुगली कर रहा होता है पर जब उनसे पहाड़ी भाषा में बात करो तो वो एक दम मुकर जाते है की उन्हें पहाड़ी भाषा आती ही नहीं है. बड़ा अजीब लगता है. इस लिहाज से पहाड़ी भाषा में लिखने का आपका प्रयास सराहनीय है.

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  2. गोंदियल साहब बहुत सुंदर बाते बताई आप ने,चट पकडी पट मारी वाह वाह जी सारे पिस्सू खत्म

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  3. सोहन लाल और उनके भाई सुकारू दास का अपनी वाद्य-संस्कृति को बचाए रखने का यह प्रयास नितांत सराहनीय प्रयास है......sach apni sanskriti ke liye jitna kuch kiya jaay kam hai,...
    aalekh padhkar bahut achha laga... gaon kee bhuli bisari yaadon aur baaton mein khona mujhe bhi behad bhata hai, lekin kayee pariwaron kee dasha dekh man kayee baar bahut dukhi bhi hota hai...
    saarthak prastuti ke liye aapka aabhar

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  4. आप को दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ|



    विचार शून्य जी के विचारो से सहमत हूँ|एक बार एक आदमी से मैंने भी पूछा था की आप कहाँ के हो तो जवाब मिला बागेश्वर के| बागेश्वर का गांव पूछा तो जवाब मिला बागेश्वर नहीं पनुवानौला| वहां का गांव पूछा तो जवाब मिला पनुवानौला नहीं लम्गड़ा| फिर मैं चुप कर गया क्या कहता| क्यूँ की बागेश्वर का मैं रहने वाला था और पनुँनौला मेरा ससुराल था|

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  5. बहोत अच्छा लगा आपका ब्लॉग पढकर ।

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    हिन्दी दुनिया ब्लॉग

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