Saturday, August 18, 2018

एक गढ़वाली कविता- चुष्णा वन्दना

एक गढ़वाली कविता- चुष्णा वन्दना 

या कविता मेरी सारि चुष्णा पर 
ध्यान लगावा  बिंग्यणा मा ,
सुण्ण तुमुन त टक लगै  की
नी सुण्दै त चुष्णा मा।  

बडो फ़रक च ये चुष्णा कू 
भेद समझण  सुण्ण मा ,
कना कनौ  की  मौ चलिगेन 
चूषणे, चूषणम, चुष्णा मा।

चुष्णा आन्दू काम हमारा 
जाण तलक सी होंण सी,
कोर्ट, कचहरी,दफ्तर जथगा
मुहर च लगदी चुष्णै की।

गुरु द्रोण भी जाण्दा छाया 
विकट शक्ति तै चुष्णा की,
एकलव्य सी गुरु भेंट मा
मांगी तौन चुष्णा ही।

पहाड़ियोंन अप्णु  राज्य बणै  छौ
लग्यां रंदन अब कोष्ण मा,
चुष्णा दिखाई  नेता लोगून
बड़ा बड़ा सुपिना दिखैकि घोषणा मा।

बाबू लोग भी दिनरात लग्यां छन
एका -हाका तै  लुछंण मा ,   
सुण्ण तुमुन त टक लगै  की
नी सुण्दै त चुष्णा मा।  

अब त नै-नाना भी याद ऐगेन
राजधानी गैरसैण तक लोष्ण मा,  
मंत्री दिदा सब्बी व्यस्त हुइयाँ छन  
दिल्लिया  देवी-देवतौं तै तुष्ण मा। 

मिन चुष्णै कविता लेखि पुन्ग्डा मा 
रैग्यूं कलम घुष्णा  मा,
आई बरखा रुझिगे कागज़ 
कविता चलिगे चुष्णा मा।
-द्वारा संशोधित, पीसी गोदियाल 'परचेत'       


     

3 comments: