Wednesday, December 24, 2008

पहाड़ दुर्दशा !

अपनी एक पुरानी डायरी हाथ लगी, पढ़ रहा था तब यह भद्दी छोटी सी कविता जो मैंने तब लिखी थी जब मैं ८वि या ९वि कक्षा में पढता था और मेरे इलाके में श्री सुन्दरलाल बहुगुणा की अगुवाई में चिपको आन्दोलन चल रहा था :


हरिभरि डांडी सफा कटे गिन,
पशु पक्षी एख का सभी मरे गिन,
बरखा पाणी होण कना मा,
हवा होण कु डाली-बोटली निरै गिन !

बोलदा छा जै थ्ये पहाडू की राणी,
रउवे-रुयैक स्या ह्वैगे काणी ,
धारा पंदेरा गाड-गदनियों कु,
कख हर्ची वू ठंडू पाणी !

गरीब लोग यूँ पहाडू का,
क्या खैरी ठेस खाणा छन
पेट का खातिर छोड़ी-छोड़ी की,
भैर देश सब्बी जाणा छन,

मुंड कपाल रेचि यूँ पहाडियों,
पर जन छा तनी रैन
मुंडी-मुंडी क यूँ सणी,
देशी-बणियाँ क्य फलीफूली गैन

पतिरोल-फोरिस्टर जो छा रक्षक,
सी बनि गिन बणु का भक्षक,
कुलाडी उठैकी, अफी चल जान्दन,
डाली दिखेंदीन तों तैं जख-जख !
घूस खै-खै की यों वन-रक्ष्कू की,
दिनोदिन सूझण लगी फांड हो
क्या दशा ह्वेगी यूं पहाडू की,
कैन करी यो काण्ड हो,

गोदियाल

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