Wednesday, January 21, 2009

दो शब्द !

My Grand  Maa late Swaree Devi
बंधू ! बस यूँ समझिये कि लेखन के प्रति लगाव या यु कहूँ कि एक जूनून बचपन से था ! आज उम्र के इस मुकाम पर पहुँच कर अफ़सोस यही रहता है कि मैं अपने लेखन को संजो कर नही रख सका ! लिखता था, दो चार दिन पढता था और फिर फाड़ कर फ़ेंक देता था ! कहीं कोई डायरी लिखी भी तो पिता फौज में थे, हर दुसरे -तीसरे साल बदली हो जाती थी कभी अरुणांचल तो कभी जामनगर, कभी केरला तो कभी श्रीनगर ! और इस अदला बदली में बहुत कुछ छूट जाता था, जो कॉफी किताब या डायरिया होती वो वहीँ छूट जाती ! नवी- दसवी गाँव के स्कूल से की थी ! रात को जब लोग चैन की नींद सो रहे होते थे तो मैं लैंप ( लम्पू ) के आगे लिख रहा होता था ! उस समय की लिखी एक छोटी सी पहाडी कविता की कुछ पंक्तिया याद आ रही है , इन्हे ग़लत तरीके से मत लेना ! भले ही यह हास्यास्पद हो, लेकिन एक बाल्यकलाकार ने जो कुछ देखा, उसका चित्रण किया :

कविता का शीर्षक था " धत्त तेरे पहाडी की "

ऩ्हॆण-धुयेण नी मैनो तक,
थेग्लों पर बास आँदी इन ,
जन लुव्हे की कड़ये पर आंदी, 
बासी कोदा का बाड़ी की !
धत्त तेरे पहाडी की !

नाक मूंद सिंगाणा का धारा, 
गिचा मूंद बौग्दु ऴाळु,
सलवार कु नाडू त् 
संभाल नि सकदु,
अर बात करदू खाड़ी की !
धत्त तेरे पाहडी की !!

दिनभर हुक्का फुकुण,
काम कि दां कोणा लुकूण,
उलटू भांडू सुलटु कै नी सकण,
अर बतीसी दिखौंण
गिच्चू फाड़ी की, 
क्य तारीफ़ करू त्व्ये अनाडी की !
धत्त तेरे पाहडी की !!

कलात्मक गुण तो हर इंसान के अन्दर होता है, जरुरत होती है, उसे बाहर लाने के लिए एक सुद्र्ड प्रेरणा की ! हमारे अपने बड़े-बुजुर्गो से पहाड़ के अनेक कवियों के बारे में सुना और इसी से आगे कुछ लिखने की प्रेरणा मिली ! बहुत पहले ऐंसे ही एक कवि थे, और शायद आप भी उनसे परिचित होंगे ! वो थे, महंत योगेन्द्र पुरी ; अपने बड़े बुजुर्गो से उनकी कविता के चर्चे सुने , कुछ पंक्तियाँ याद है जरा आप भी पढिये:

जिंदगी कु दिन एक आलू 
वारंट दीकी यम् त्वे बुलालू 
जल्दी त्वे सणी वख जाण होलू 
सामल भी साथ नि लिझाण होलू 
कुडी व पुंगडि, धन, माल, माया, 
नौना-जनाना छन जौंका प्यारा
धर्यु ढकायुं सब छूटी जालू 
वारंट दीकी जब यम् त्वे बुलालू.............................................!

सोचिये, कितनी गूढ़ बातें कही हैं कवि ने !!
धन्यवाद
गोदियाल
मेरा यानी गोदियाल वंश का शुरूआती इतिहास !सोलह्वी सदी के आस-पास उत्तरांचल मे, खासकर समूचे गढ्वाल क्षेत्र के ब्राह्मणो मे अपनी उपजाति(सरनेम) के साथ ’याल’ अथवा ’वाल’ जोड्ने की प्रथा काफ़ी प्रचलित थी! जिस उपजाति के साथ ’याल’ जुडा होता था, जैसे नौटियाल, थपलियाल, गोदियाल,सेमवाल, जुयाल,पोखरियाल,सुन्दरियाल,बौठ्याल इत्यादि , तो परिचय देते वक्त सुनने वाला सहज यह अन्दाजा लगा लेता था कि परिचयदाता ब्राह्मण जाति का है ! पन्द्रहवी-सोलह्वी सदी का वक्त काफ़ी धार्मिक उथल-पुथल वाला माना जाता है ! पहाडो मे हिन्दू धर्म को मानने वाले मुख्यत: तीन वर्गो अथवा जातियो मे बंटे थे; ब्राहमण, क्षत्रिय और शुद्र ! इन अलग-अलग वर्गो और जाति के लोगो ने स्थान, देश और ऐतिहासिक्ता के आधार पर अपनी अलग-अलग उपजातिया बनाई !

गोदियाल वंश का उदय सन १५५० और १६०० ई० के मध्य हुआ माना जाता है, जब नौटियाल उप-जाति का एक ब्राहमण परिवार, कर्ण-प्रयाग से करीब पचास किलोमीटर आगे, गढ्वाल और कुमाऊ की सीमाओं के मध्य स्थित नौटी गांव से निकलकर, अनेक दुर्गम पहाडियों को पार करता हुआ, फतेह्पुर, बरसौडी (राठ शेत्र) होता हुआ, वर्तमान पौडी जिले के गोदा नामक गांव मे पहुचा और वही जाकर बस गया ! तत्पश्चात गांव के नाम के आधार पर अपनी उपजाति ’नौटियाल’ से बदल कर ’गोदियाल’ रख ली, और फिर यहां से इस गोदियाल वंश का उदय हुआ ! अबका तो खैर ज्यादा मालूम नही, किन्तु पुराने वक्त में यही वजह थी कि नौटीयालो और गोदियालो के बीच शादी के रिश्ते नहीं होते थे ! उस समय इस गोदा गांव के आस-पास पांच-सात कन्डारी उपजाति के क्षत्रिय परिवार रहते थे, आस-पास कोई और ब्राह्मण परिवार न होने की वजह से उन्होने इस ब्राह्मण परिवार को अपना राज-गुरु बना लिया ! और तभी से यह प्रथा शायद आज तक चली आ रही है !

समय बीतने पर इस परिवार ने भी बढ्ना शुरु किया और अठ्ठारवीं सदी तक पहुंचते-पहुंचते एक भरे पूरे गांव की शक्ल मे परिवर्तित हो गया ! फिर जैसा कि अमूमन होता है, परिवार मे लोगो के बढ्ने और रोजी-रोटी के साधनो के सिमट्ने से भाईयो और सगे-सम्बंधियो मे आपस मे कटुता बढ्ने लगी और धीरे-धीरे गोदियाल परिवार यहां से भी बिखरना शुरु हुआ ! यह बात मै अपने तजुर्बे के आधार पर लिख रहा हूं कि शायद तभी से यह अभिशाप(मै तो इसे अभिशाप ही कहुंगा) इस गोदियाल जाति के साथ चला आ रहा है कि हालांकि इस जाति के लोगो ने हर स्तर पर सराह्नीय प्रगति की, मगर कहीं भी ये लोग दो , अधिक से अधिक तीन पीढियो से ज्यादा एक स्थान पर नही टिक पाये, और अब तो आलम यह है कि एक पीढी से आगे ये लोग एक जगह स्थिर नही रह पा रहे हैं !

अठ्ठारवीं सदी के शुरुआत मे जब लोग इस गोदा गांव से निकले तो बिखरते चले गये ! कुछ परिवारो ने पहाडो मे ही अन्य स्थानो पर अपने ठिकाने तलाशे तो कुछ मैदानी इलाको जैसे देहरादून, चन्डीगढ, बिजनौर तथा दक्षिण मे आन्ध्रा प्रदेश, कर्नाटका के हुबली-धारवाड़ तथा गोवा की ओर प्रस्थान कर गये ! मैदान की ओर गये कुछ परिवारो ने गोदियाल उपजाति का परित्याग कर अपनी नई उपजाति शर्मा रख ली ! कुछ लोग जो आन्ध्रा प्रदेश, कर्नाटका तथा गोवा मे बसे थे, उन्होने अपनी उपजाति तो गोदियाल ही रहने दी, मगर धर्म बदलकर मुसलमान बन गये, मसलन इस्माइल गोदियाल, अमानुल्ला गोदियाल, सलमा गोदियाल, अताउल्ला गोदियाल ,परवेज गोदियाल, इत्यादि ! इनमे से कुछ मुस्लिम परिवार बंगलौर मे भी बसे है !
(इससे आगे का हिस्सा सुरक्षा कारणों से हटा दिया गया है और यदि इसमें किसी भी सज्जन का अपना आगे कोई ऐतिहासिक लिंक नजर आता है तो कृपया उसकी डिटेल मुझे इ-मेल करे, अथवा मेरे नीचे दिए गए ब्लॉग पर भी आप अपनी प्रतिक्रिया छोड़ सकते है ! मैं उसके आगे की जानकारी जितनी मेरे पास उपलब्ध है, आप लोगो को दूंगा ! मैं आपको विस्वास दिलाता हूँ की सभी सूचनाये गोपनीय रखी जायेंगी ! साथ ही आप लोगो से प्रार्थना करुंगा कि यदि आपको इस वंशीय इतिहास की कोई और ठोस जानकारी हो( चाहे वह छोटी सी जानकारी ही क्यो न हो), तो कृपया मुझे मेल करे, मै इसके लिये आपका आभारी रहुंगा, और आप से यह भी निवेदन करुंगा कि इसमे जहां कही पर आपको अपने बंश के उल्लेख की कडी मिले उससे आगे का अपना इतिहास स्वयं लिखे और उसमे अपनी वर्तमान पीढी के नामो का उल्लेख करें, तथा वर्तमान और आने वाली पीढियों को भी इसे आगे लिखते रहने के लिए प्रेरित करे ! यह बंशीय परिचय मैने किसी दुराग्रह से ग्रसित होकर नही लिखा, फिर भी यदि भूल से किसी बात का कोई अधूरा या गलत उल्लेख हो गया हो तो उसके लिये क्षमा प्रार्थी हूं !)
धन्यवाद !
आपका,

My Grand Parents late Mr. & Mrs. Jaya Nand Godiyal

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