Thursday, January 29, 2009

द भै, ब्वारी क्य बोन तब !


मींकु  ब्वारी ढूँढी मेरा बुबन,         
इनी ळंबटांग्या स्वोणी ,                   
जन क्वी झंगोरा का बीच कौणी ,
अर् बांदुरु का बीच  ग़ोणी !


तडतडी च नाक व्वींकी,
जन  दाथ्डै  की चोंच होंदी,
अर् चौंठी पर तिल च इनु.
जन क्वी मोटी कौंच होंदी !


हैंस्दी मुखडी व्वींकी इन दिखेंदी,
जन्बुले हो रोंणी,
मीं कू ब्वारी ढूँढी मेरा बुबन,
इनी ळंबटांग्या  स्वोणी  !


बोल्दी दा इन छुट्दन तैन्का,
गिच्चा बिटिक बोल,
मंडाण मा कखी बजणु हो,
जन क्वी फुट्यु ढोल !


जब देखा स्य धारा  परै,
मुख् ही रन्दि धोणी,
मीं कू ब्वारी ढूँढी मेरा बुबन,
इनी ळंबटांग्या  स्वोणी  !


सेडी सुर्म्याऴी आंखी रंदीन,
गीत क्वी सुणाणी,
देखदी दां कन  रै बबा तेरी,
खोपडी स्या खजाणी !


जन तव्वा कु थौरु होन्दु,
इनी  तैंकी हाथि -गौणी,
मीं कू ब्वारी ढूँढी मेरा बुबन,
इनी ळंबटांग्या  स्वोणी  !


Note: 
विद ड्यू रेस्पेक्ट,  सर्वप्रथम तो यह कहूंगा कि आप इसे किसी के उपहास के तौर पर बिलकुल भी न लें, यह कविता सिर्फ मैंने हास्य-विनोद  और मनोरंजन के लिए लिखी है , इससे किसी के मन पर अगर कोई ठेस पहुचे तो उसके लिए भी अग्रिम क्षमा ! कविता का सार यह है कि बेटा अपने पिताजी को कोसते हुए कह रहा है कि पता नहीं मेरे बापू की क्या खोपड़ी खुजला रही थी जो इस लम्बे टांगो वाली हसीना(ळंबटांग्या स्वॉणी ) को मेरे लिए ढूंढा !

-गोदियाल

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