Sunday, April 5, 2009

लघु गढ़वाली रूपक- 'देशी ब्वारी'

पात्र:
महेशानंद - साठ बर्षीय बुजुर्ग
विशाम्बरी - महेशानंद की पचपन वर्षीय पत्नी
राकेश - महेशानंद और विशाम्बरी का २८ वर्षीय जेष्ट पुत्र
लक्ष्मी - २४ वर्षीय राकेश की बहु ,जेष्ठ पुत्र बधु
अन्य पात्र: दिनेश- २५ वर्षीय द्वितीय पुत्र
दिनेश की बहु-२२ बर्षीय पुत्र बधु
( महेशानंद जी छाजा मा बैठीक हुक्का पेंण लग्या छन और कुछ सोच मा भी पड्या छन, इतना मा भैर चौक मा विशाम्बरी आन्दि)


विशाम्बरी: (ऊँचा स्वर मा कणान्दी और बोल्दी) हे मेरी बोई.... उहू..... मरग्यु मी त..... बजर पडेंन मास्द्वी यी गवाडी मूंदे, सुबेर बिटिकी काम करदू-करदू हड्गा- मुड्गा दुखण लगिन मेरा त ! "काम कु नौ नी च अर् प्राणी कु थौ नी च", पता नी विधातन मेरी यी खोपड़ी मा क्य लेखी, सदानी इनी खैरी खैन मिन त ! कैन सुद्दी थोडी नी खायी उ औखाणु; "हल भी लायी, फल भी पायी, पर सुखदेव जीन कभी सुख नी पायी" !


महेशानंद: हा-हा-हा-ह,... खफ-खफ...हुक्का चिल्म का कस लेते हुए, …किले छे राकेश कि ब्वै आफी-आफ मा बरणाण लगी, तिन बरडै-बरडै कि पागल ह्वै जाण, मिन बोलियाली !




विशाम्बरी: ( गुस्सा मा ) हां-हाँ, होण दया, तुम्तै भारी च फिकर...




महेशानंद: अरे राकेश कि ब्वै, सुण त सै, तुत जरा-जरा सी बात पर गुस्सा ह्वै जांदी...!


विशाम्बरी: बस-बस, आज तक भौत सुणियाली मिन तुमारी, अब नी सुण सक्दू, सुणि सुणिक मेरा कंदूड फुटि गैन !


महेशानंद: (गुस्सा ह्वैक) ओ हो , राकेश कि ब्वै, तुत मेरी बात सुणीक इन उच्हड़न लग जांदी जन कवी चौबाटा पर कालिंक्या उच्हड़दी, पता नि क्य जोग्लौर आन्दि त्वै परै..... पूरी बात कभी नी सुणण !


विशाम्बरी: बोलियाली न, नि सुणि सक्दू , आज तकै मिन सूणी त च, कुछ तुमारी सुणी, कुछ तुमारा लड़ीक,ब्वारिकी ! (गुस्सा दिखौन्दी और बोल्दी) तुमारा आँखा त अभी गरुडून गाडी नि छन, तुम भी देखणागै होला कि क्य च मेरी फंजोडा फंजोड़ी होंणी ! या उमर च अब मेरी काम करनैगी, है ? दिनेशै ब्वारी स्या सुबेर लीक चलिगी छै बौण, घास का बाना परै, अब औली व्यखिनी दा मजा मा हाथ हिलौन्दी, ततुरु दिन काटदी वा तै बौण, अर् स्याम वक्त द्वी पूली घासै मुंड मा धारीक ऐ जांदी मटकी-मटकीग, शरम भी नी औंदी कुत्ति तै ! जै पर बितदी, वै तै ही पता चल्दु !




महेशानंद: ओ हो त क्य करन मिन, किले छै तू मेरा पिछ्नै हाथ ध्वैगी पड़ीं, साफ़ साफ़ किले नि बोल्दी !


विशाम्बरी: क्य करन तुमुन, मजा मा हुक्का प्या और टांगडा पसारिक बैठ्या रा, और कर भी क्य सक्दै तुम ! बिजां फरकैली तुमुन आज तकै....! ( फिर जोर सी बोल्दी ) कम सी कम इथा त होश होंदी कि छोटा नौना कु ब्यो पैली करियालि, अर् बड़ा लड़ीकै गी क्वी पूछ नी...... उ स्यु सुधि च लटगुणु दिल्ली फुंड ! कतना शर्मै की बात च, लोग दू क्य होला बोलणा ! तुम त इन छा सोचणा जन बुले लोग आफी लान्दन आपरी नौनी तै तुमारा मोर पर धार्नौकु तै ! पिछ्नै बीटी सी चार मसाण और ह्वैगिनी खडा, बिवोंण लैख ! कम सी कम ब्योड़ दुकानी मा त जांदा, सी च दूकान छोरो का भरोषा परै छोड्डी, पतानी क्य छन वार-पार करन लग्या वू!




महेशानंद: इन बोल्दु यार त,तेरा बोल्नौगु मतलब या च कि राकेश कु ब्यो करा!


विशाम्बरी: और नतरै सुदी छौ तुम दगडी दिमाग पचिस्सी करणु, एक ब्वारी और यै जाली त थोडा त काम कु बोझ हल्कू होलू , यी छन बुडेन्दी दा मेरा हड्गा-मुडगा चुरेणा, और कुछ नि ह्वै सक्लू वी सी त, कम सी कम खाणौं त देली पकैगि तै !




महेशानंद: हा-हा-हा,..... अच्छा त तू इ छै सोच्णी कि अगर हाकि ब्वारी भी ऐ जाली त सौब काम तब ब्वारी ही करली और तू भी मजा मा टांगडा पसारी बैठ जाली ! कुजाणी बुढडी... कुजाणी-कुजाणी... यांगा भिन्डी सास न रा, आज्कलै पढ़ी-लेखीं नौनी क्वी काम नी कर्दीन, वू त तेरा धन भाग, जू दिनेशै ब्वारी त्वै सणी काम-काजी मिलिग्याई, तू छै सोच्णी सभी तनी ह्वालि ! तू भी रैगी सदानी जंगली गी जंगली...!


विशाम्बरी: हाँ-हाँ मैं त जंगली छौ, तुम त छा मन्खी, भारी घुमायु तुमुन मै बम्बै, कलकता...!


महेशानंद: हे बुडड़ी! झूट न बोली वा, बुडेन्दी दा कीडा पडला, अगर झूट बोलली त...! तता साल घुमाई मिन तू दिल्ली मुन्दै, वू ठीकि बोलि कैन कि 'बार मॉस दिल्ली रै, अर् भाडै झोकी'...!
विशाम्बरी:(गुस्सा मा ऐन्च छजा मा ऐक तै, महेशानन्द का बगल परै बैठीक तै ) बस, तुम मा त व्योगि छ्यो गाडि अर, लग्या तुम मी सैणि लेक्चर सुणोण, कुछ कर्यन-धर्य्न ना !


महेशानन्द: ओ हो, त नी आन्दि बुडीड रस्ता परै, अच्छा त सुण मेरि बात, हमारु नौनु सोलां पढयू च, ये वास्ता, वै तै ब्वारि भि कम सी कम बारह्वीं’ पढीं त खोज्णै पड्ली….


विशाम्बरी: हे मेरी ब्वै, बारां पढी…,तब त करियालि वीन काम काज, भै ज्यादा सी ज्यादा पाच-सात पढी खोजा दू, जरा चिट्ठी-पत्री लेखण-पढ्ण आयि चैन्दी बस, भारि जाण वीन बारां पढीक प्रधान मन्त्री बण्णौ कु त्तै,


महेशानन्द: भै तन्त त्वि जाण, छै-सात पढी दग्डी मा राकेश ब्यो करण तैयार होन्दु भि च कि ना….!


विशाम्बरी: किलै नि कर्लु, मी आफ़ि त सम्झौन्दु वै तै,


महेशानन्द: (परेशान ह्वैक्तै) ओ हो त तु नी छै माण्न्या मेरी बात,चला आज-भोल नौनु भी घौर आण वलु च , वै औन दी, तब वै पूछीक ही ढून्ड्ला नौनि !


( थोडि देर मा नीस खोली कु दरवाजु बज्दु)


महेशानन्द: कुच भै ?


आगन्तुक: मै हू पिताजी, राकेश !


महेशानन्द: (विशाम्बरी तै ) हे बुढडी ! कि छै खुट्टा पसारी बैठी, खडु उठ, नौनु ऐगि दिल्ली बिटिन, चा, पाणि बणौ वै तै..!


राकेश: नमस्ते पिता जी !


महेशानन्द: चिरंजीव बेटा, ठीक छै, औ बैठ, क्य हाल छन दिल्ली फुन्डैगा ?


राकेश: क्या हाल होने है पिताजी, आजकल वहां सडी गर्मी पड रही है बस….उह…..अफ़ ( अपना रुमाल सी चेहरा पर हवा करदु )…. यहा तो फिर भी ठीक-ठाक मौसम है !
(इतना मा विशाम्बरी भितर बिटीक पांण्यों गिलास लान्दि)


राकेश: नमस्ते मांजी !


विशाम्बरी: ( पांण्यों गिलास वै तै पक्डैग तै ) चिरंजीव बेटा ! खुब छै, कथा लम्बि उमर च मेरा बेटै की, आब्बी, हम द्वी बूढ-बुड्या तेरै बारा मा छा बात करना…!


राकेश: मेरे बारे मे क्या बात कर रहे थे मां आप लोग ?


विशाम्बरी: तेरा ब्योगि बात बेटा, तेरा ब्योगि बात छां हम करण लग्यां, बोल दू, पांच-सात पढी नौनि ठीक रालि, भिन्डी पढी-लेखिं लैग भी क्य कर्न, थोडा काम-काज वाली….


राकेश: (बीच मा ही खडु उठ जान्दु और बोल्दु) पांच- सात पढी का मैने अचार डालना है क्या ? पहले तो बी ए हो, नही तो कम से कम इन्टर पास तो होनी ही चाहिये…..(बैग उठैक भितर अपणा कमरा चलि जान्दु)




महेशानन्द: ( विशाम्बरी सी) सुणि यालि तिन, सीधु बी ए च खुजौणु…. ( तोतलु गिचु बणैक ) जाण्दि छै, बी ए कथा तै बोल्दन ? उतनिदा त खुब छै अपरा गिच्चा पर पोलिस लघ्हाणी कि मै आफि सम्झौन्दु अप्णा लडीक तै, अब क्य ह्वै ? वा औखाण च न कि “ मेरु नौनु दोण नी सौकुदु, बीस पथा सौक्याल्दु”… भलो…भलो, तेरै बोल्यां पर मैन कखि बात पक्की नी करि , अभि गला-गला ऐ जान्दि हमारा !


विशाम्बरी: उह ….! करा भै त अब जु कुछ करदै, मिन क्या बोल्ण, पालि-सैन्तीकि, पढै-लिखैकि आखिरि मा इनि लगौन्दन यि जुत्ते पटाक, पाला बल यु तै…!
(अगला दिन सुबेर मु )


महेशानन्द: (विशाम्बरी सी)चल्दु छौ भै मै, जरा मेरु लाठु-छ्तुरु लौ दु बल,
(कुछ देर बाद राकेश भैर आन्दु)


राकेश: मां, पिताजी चले गये, क्या कहा पिताजी ने ?


विशाम्बरी: वून क्य बोल्ण, चलिगिन तब देख दू कखि लग जौ सैदा-भैदा…. आस पास त कखी इथा पढी-लेखि नौनि छौ भी नीन…
(महेशानन्द कु प्रवेश)


महेशानन्द: हे मेरि बोइ, बिजां गरम च होणु आज त, एक गिलास पाणि लौ दु बुढ्दी….


विशाम्बरी: ल्या इच….. जल्दि ऐग्या लौटीक, लगि च कखि…….!


महेशानन्द: हां, तेरै मैत का धोरा च एक नौनि, तेरहा मा पढ्नी च , भैर देश रन्दी, अपणा बै-बुबा दग्डी… आज कल सभि घौर छन आयांका गर्मियो की छुटियों मा ! पर एक बात च भै, चाल-चलण नौनि कु बिल्कुल देश्यों जनु च, काम का नौ परै उल्टु भान्डु सुल्टु नी करदी वा…साफ़ साफ़ बतैलि वींगा बै-बुबन ( राकेश की तरफ़ मुडीक तै ) तेरु क्य बिचार च बेटा ?


राकेश: अगर लड्की वाले तैयार है तो ठीक है पिताजी, मेरे साथ उसको भी दिल्ली के ऐड्वांस कल्चर मे रहना है ! ( भितर चली जान्दु)


विशाम्बरी: (महेशानन्द सी) अच्छा त इन करा कि अगर जल्म्पत्री जुड जान्दि त जब्र्यु नौनु छुट्टि पर यख च और वु लोग भी घौर मु छन, फटा-फट ब्यो भी करि दया


महेशानन्द: ठीक च, मै भी जल्दी निपटौणै गी छौ सोच्णु !


(और तब कुछ टैम का बाद ब्यो भी ह्वै जान्दु, महेशानन्द जी लोण मन्त्र भी जाण्दन, जौं लोगु का गोरु-भैसा ढंग सी दूध नी देन्दन वू महेशानन्द जी मु लोण मन्त्रौण कु आन्दन, ये वास्ता घौर मा लोग-बाग औणा, जाणा रन्दन )


इन्नि एक आगन्तुक: पंडाजी पैलोक !


महेशानन्द: आशिर्वाद महाराज !, आवा बैठा,


आगन्तुक: और सुणा, बाल-बच्चा, कुटुम परिवार सब ठीक ठाक छन, मैन सूणि आपन नौना ब्यो करि हालै मा, नौना ब्वारि कख छन्न ?


महेशानन्द; हां, खडेलिन मास्त, तखि होला भितर फुन्ड जनान्यों दग्डी मा कखी लट्कणा !


आगन्तुक: हे बाबा ! ततरी बात किलै छा बोल्णां, ल्या दु जरा ये लोण तै मन्त्र दयान, बिजां दिन बिटीकि कट-पट च कर्ण लग्यु लम्डौण्यां भैंसु.


(महेशानन्द जी लोण की पूडि क भितर धार्यु एक रुप्या सिक्का कीसा मुन्द धार्दन और लोण मन्त्र्दन)


महेशनन्द: ऒम नमो महादेव साकुर जी तुम को नमस्कारा, धरती माता कुर्म देवता तुम को नमस्कारा, रान्ड को हुन्कार फुन्कार, मर्द को जैकार, ऐला सीता कौन्ति दुर्पदा तुम को नम्स्कारा, (गिच्चा भितर धीरा सी) जो या भैंसी अगर दूध होलि देणी त दूध नि दयान, ब्याण्कु होलि त द्वी थ्वैडा ह्वान ! वांका बाद अपरी मुठ्ठी बौटीक व पर जोर सी फूक मार्दन, और फिर आगन्तुक सी, ल्या ये लोण तै भैंसा तै द्वी दा सुबेर – शाम चटै दयान !
(आगन्तुक का जाण का बाद विशाम्बरी औन्दि)


विशाम्बरी: हे मेरि बै उह ! छी भै, बजर पडेन ये जमाना मुन्दै, बोल्ण कु तै द्वी ब्वारी छन, अर् मेरा यु हाल छन, ऊ भग्यान सी छन मजा मा भितर पड्या का, लोच्डी ऐगि हो जन बुले !


महेशानन्द: (मंद-मंद हंसते हुए) पैली छै बूढ गिताड कि अब नात्ती दु ह्वैगी ! मैन त पैली बोलि यालि छौ कि इना सास कतै न रा कि हाकि ब्वारि का आण पर तु राज माता बणि जालि, अरे बुढ्डी किलै रन्दी त्वै तै इथा सगर-डगर होणी, तु भि चुप बैठ जा दू , हम द्वी झणौ तै पेन्शन ही काफ़ि च, यि मास्द, कर कमै सक्ला त खै लेला, नतरै आफि बजौंदन मुरली !


विशाम्बरी: ऊ भग्यान जब बजौला, तब बजौला मुरली, पर हमारी मुरली त सी आभि बिटीकि बज्ण लैगि, क्य पै मैन युं मास्दु तै पाली-सैन्तीक, सी छ्न बिल्कुल अंग्रेज बण्या, अंग्रेजि मा छन तौन्कि बात चल्णीं, पता नी क्य बुरैं छन हमारि करन लग्या ? ऊ छन सोचणा, यीत बोलिक्तै पढ्या-लिख्या नीन, यून क्य सम्झण की हम क्य छा बोल्णा, पर मै त सौब सम्झ्णु छौ ! ( तबर्यो भितर बीटी राकेश की ब्वारि आवाज लगौन्दि)


लक्ष्मी: मांजी टू कप टी
विशाम्बरी: (महेशानन्द की तरफ़ मुडीक तै) सुणियाली तुमुन क्य च तुमारी देशी ब्वारि मी क तै बोल्णी ?


महेशानन्द: ( अटपटा मन सी)


विशाम्बरी( गुस्सा मा उंची आवाज निकाली तै), हू, जन बुले तुमुन नी सुणी, भै मी तै च बोल्णी कि तू खब्ती छै बल !


महेशानन्द: (हुक्का गुड्गुडाते हुए ) भै, बुढ्डी फुन्ड फूक, अब बोलण दी ऊ तै अब जु कुछ बोल्दन, अब क्य कर सक्दा हम ? जुंओ गा बानौ घाघरू त नी छोड सक्दा न ! आपर्वी सिक्का खोट निकल जौ त क्वी क्य कर सक्दु ?


विशाम्बरी: हां, बोल्ण दया, नतरै मी वीकु गिच्चु छौ बुज्डू, जै बौ गु बल बडु भरोशू छौ, स्ये दिदा-दिदा बोलण लगी ! (ये बीच मा लक्ष्मी दुबारा आवाज लगौन्दी)


लक्ष्मी: मांजी , पिलीज टू कप टी


विशाम्बरी: (गुस्सा मा जोर सी) हे बेटी ! पलीत तेरि ब्वै होलि, जैन तु पैदा करी, अर खब्ती ऊ होला मास्द जौन तु यख विवाइ या यी होल जु इनि भद्रा तै यख लैन !
(लक्ष्मी भैर औन्दि पिछ्नै-पिछ्नै राकेश भी दग्डा मा औन्दु)
लक्ष्मी: (गुस्सा मा) मांजी व्हट नोन्सेन्स,टाक सिन्सीबली


विशाम्बरी: क्या ? क्य बोलि तिन, ह्ट नौनु छैंच, अर तु टांग खैंच देलि, ली जरा खैंची दिखौ, छै अपणा बुबै त ! अर अब पालि-सैन्तिकी ये नौनन त्वै दग्डि मिलिगि तै हमारी टांगै त खिच्ण, हे मास्द, शरम कर !


लक्ष्मी: अरे मांजी, तुम तो मेरी हर बात का उल्टा ही अर्थ निकालती हो, मैने तो आपसे सिर्फ़ दो कप चाय बनाने को ही कहा था, खैर, मै खुद बना लेती हू !
(फिर थोडी देर मा किचन बिटीकि आवाज लगौन्दि, अरे मांजी ! स्टोव जल रहा है , चावल कुक्कर मे डाल दू क्या ? (ये कुक्कर और स्टोव तै वा ब्यो मा दैजा लै छै)


विशाम्बरी: हां, शाबास ! चौलु तै कुकुरु मु डाल दी, और तुम तब थौकुली बजान, भै चौल यू मास्दू तै फीर्यन जु इनि लक्ष्मी यख लैन , ( जोर सी) मैन त बोल्लि छौ, देशि ब्वारि नि ल्हवा… नि ल्हवा……!
(पर्दा गिर जाता है )
_पी.सी. गोदियाल
नोट: यह लघु रूपक मैने ११ मई, १९८२ को किसी खास वजह से लिखा था, तब मैं बारहवी का छात्र था !

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