Thursday, January 24, 2013

कुछ गढ़वाली मुक्त छंद











सेन्दु - जाग्दु 
वक्त -बेवक्त  
आंख्यों मा 
रिंग्दी रांद,

रात जन्नी 
बिछोंणा पौड्यू 
सुपिना आंदि 
उलार्या बांद।   

भरीं ज्वानि, 
इखुलू मन
सब्बी अपणा 
सी दूरु-दुरू ,

दंदोल उठ्दी,
प्राण ड़ब्कुदु ,
जिकुड़ी झुरान्दी
अर बाडुली शुरू। 

xxxxxxxx 


द्वी दग्ड्याणी 
छ्वीं लगाणी
खड़ी  ह्वैकी  
वळ्ळि मोरी, 
पल्ली मोरी,  
दुत्ति, पातर 
क्वा च बल वा 
अरे वी,  
वा लबरा छोरी। 

सूणिकीतै लुळयाट 
तौन  पूछी,  
किलै रव़े वा 
बुकरा-बुकरी ? 
मीन बोळी, 
मेरु लाड़,
मेरु पुळयाट। 
xxxxxxx 

ह्युंदा दिनू ,
घुंघुरू घाम 
लग जाँदा,
सासु का  
जब ठण्ड मा,

इन भरमौन्दि 
ब्वारी बौगी ह्वेक़
जन मुण्डौ नौ 
बल कपाल,
कख च  ? 
बर्मंड मा।  


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