Tuesday, January 29, 2013

गढ़वाली कहानी- कु छै वा ? (वो कौन थी ?)


वूँ द्वियोंगी पैली मुलाकात  गर्मियों का दिनु मा गौं मा ज्व़ा रामलीला खिलेन्दी छै, वख हवे छाई। कृष्णा  सूपर्णखा कु और मुकेश लक्षमण कु पाठ छा खेलना। द्वी पढदा भी  एका  स्कूल मा छा। मुकेश बारहवीं मा छौ वे वक्त और कृष्णा दसां मा। गर्मियों की छुटियों का बाद जब स्कूल खुलींन त द्वियोंगु मिल्न-चुल्न जारी रै। और कब वॊ द्वियोंकू यी मेल-मिलाप प्यार-प्रेम मा बदली गे, कै पता नी चली। स्कूल मा हाप-टाइम मा जै दिन भी कृष्णा अपणा  टिपिन मा घौर बिटिकी कुछ ख़ास बणैक लौन्दि  छै  त  इशारों-इशारों मा मुकेश तै भी बुलै देन्दी, और फ़्योर वू द्वी वै धार म का  स्कूल की सीढीनुमा क्यारों मा बैठीक टिफ़िन  कु आनंद लेन्दा छा।   

धीरा-धीरा द्वियोंगु प्यार परवान चढ़दी गै। बारहवी पास करन का बाद भी मुकेश कु कृष्णा दगडी मिल्न-चुल्न लग्यूं रै। चंडीगढ़ बिटीक होटल मैनेजमेंट कु डिप्लोमा करन का बाद मुकेश तै तुरंत सऊदी अरब का रियाद शहर मा नौकरी मिल्गी छै और वू रियाद चली गे। शुरुआती कुछ वक्त त जोश-खरोश मा ही कटीगे, किन्तु मन हमेशा वैकु अपणा गौ-धार फुंडे ही रिटदु रंदु छौ, अपणा डांडी-कान्ठ्यो की माटी की खुशबु ही वू आफु दगडी समेटीकी रख्दु छौ। वख वैगु बस एक ही दगड़ू छौ, केरल कु एक दोस्त, जय दगडी थोड़ा-बहुत वू अपणु मन बिमाल करदु। जै कम्पनी का मार्फ़त वू वाख नौकरे पर गै छौ वे दगडी द्वी साल कु अनुबंध छौ, यानि कि द्वी साल का बाद ही वू अपणा मुल्क वापस ऐई सकदु छौ।

वैग वास्ता दिन मैनौ का माफिक, मैना साल का माफिक  और साल जुगु का माफिक ह्वेगि छा वख। आखिरकार करदू-करदु द्वी साल पूरा ह्वेन और वेंन तुरंत अपणी बोरी-बिस्तरी बाँधी और अपणा गौं तै पैटिगे। दिल्ली एयर पोर्ट पौंछण का बाद सीधू ऋषिकेशौ  तै  टैक्सी पकड़ी, और फिर ऋषिकेश पौंछण का बाद जीएमओ की बस पकड़ीक सीधू श्रीनगर पौञ्छिगे। श्रीनगर ऐक वे तै पता चलि कि वाख बिटिक वैग गौं जाण वाळी सड़क बारिश का वजह सी जगा -जगों पर टूटीं च, अर अग्ने क्वी गाड़ी न्हींन जाणी।   

वैन अपणी घडी पर एक नजर डाली त  सुबेर की ग्यारह बजीक  पाँच  मिनट ह्वेगि छै। बिना देर कर्या अपणु ब्रीफकेश अपणा कन्धा मा धारी और पैदल ही रस्ता लगी गे। गौं पौछ्न का वास्ता वै तै पैली  एक खड़ी चढे पार कर्न छै, फिर एक सीधी उन्द्यार और तब जैक ठेट नीस वैकू गौण छौ। घाम अछ्लेंण (छैलेण) लगी छौ, गौ अभी भी करीब  तीन-साढ़े तीन किलोमीटर दूर छौ की तब्बि वैगि नजर चड्दी उकाल पर धार का ठीक बिड़ाळ एक घसेनी  पर पड़ी, ज्व़ा इकुलि घास की भारी पीठ मा धारीक मठु-मठु वैही बाटा पर धार की तरफ  बढणी छई, जख पर मुकेश भी औणु छौ। 

जब वू  वीं घसैनी का एकदम पास पौञ्छिगे त  ई  देखीग वैगी ख़ुशी कु ठिकाणु नि रै कि वा घस्येनि क्वी और नि छई बल्कि कृष्णा छै, जै तै वू दिलोजान सी ज्यादा चान्दु छऊ। वू कृष्णा सी द्वी कदम अग्नै बढ्गी छौ, वैन एकदम वींकि तरफ घूमी तै ब्रीफकेश कन्धा मकै उतारी तै वींकू  नौ पुचकारी "कृष्णा" ! वैगु इथ्गा बोन्न छऊ कि  कृष्णान भी तुरंत  घासै भारी भुंया ढ़ोळी अर वै परैं चिपकीगे और फिर बहुत देर तक वैगा सीना परैं मुंड लगैकि  रोणी रै और वू वीं तै बिमाल्दु रै। थोड़ी देर थौ खांण का बाद जब रुम्क पड़ण लगी त मुकेशन वीं तै  पैटणौक तै बोली। कृष्णन अपणी घासै भारी पीठ मा उठाई  और वांका ऐंच मुकेश कु ब्रीफकेश भी रख दिनी, मुकेशन ब्रीफकेश उतारीक वै मु पकडोंण कु कृष्णा दगडी बहुत जिद करी पर वा नी माणि।

बच्ल्योदि-बचल्योंदी वू  गौ का पास पौञ्चिगॆ छा की तभि कृष्णा रुकीगे और फिर उदास मुखडी बिटिकी वीन मुकेश पर एक नजर ड़ाली। मुकेशन तुरंत हाथ हिलैकि  वीं तै अग्नै बढ्णौ  इशारु करीक बोली, अरे न यार, अंध्यारु होण लगी, मी त्वाई-तै  तेरा गौं का तीर तक छोडीक वापस ऐ जालु। कृष्णा फिर चल्न लगी छै। गौ का दुबाट्टा पर पौंछीक कृष्णा एक बार फिर रुकीगे अर मुकेशै की त्रिफ़ा देखीक आँखों बीटिंन आँसु धोल्न लगी छै। मुकेशन फिर वा सम्झाइ, वो य़ार तू इथ्गा उदास किलै छै होणी, अब मैं तवे छोडीक कखी नी छौ जाण्या, भोल मिल्दा  फ़ेर। वैन वींकू मुंड मलासी और बोली की अब रात ह्वेगीम घौर वाला तेरी चिंता होला करना, तू हीट सरासरी। 

इथ्गा बोलन का बाद द्वियोन एक-दुसरा तै देखी, कृष्णा अभी भी आँसू धोल्नीगी छै। और फिर मुकेश वीं तै बाय बोलीक अपणा गौं की तरफ वापस लौटिगे। मुकेश जब अपणा  चौक माँ पौञ्छॆ  त वैका वयोवृद्ध दादाजी वखी चौक  मा खाट  बिछैकितै बैठ्या छा। वेंन  जन्नी  अपणा दादाजी का  खुट्टा छुएँन तन्नि वूं पर एकदम देवता ऐगे। मुकेश अपना मुल्क की संस्कृति सी भली भांति परिचित छौ ए वास्ता वेंन  ई  बात तै ख़ास महत्त्व नि दिनी और माँ-पिताजी और परिवार का और लोगु सी मिल्न लगी छौ। वेगा माँ-पिताजी तै भी इ पता छौ कि मुकेश कृष्णा तै कथ्गा चान्दु।  रात कु खाणौ खाण का बाद जन्नि वैन कृष्णै की छू गाडंण चै, माँ-पिताजी एक साथ बोली पडींन कि बेटा तू आज बिज़ा थक्यु छै, सेजा, सुबेर बात करला।

सुबेर  उठीक नहेंण -धुयेण का बाद नाश्ता करीक जन्नि  वेंन  फिर कृष्णा की छू गाडी, माँ रोण लगी गे और वैक पितजी भारी  आवाज मा रुन्ध्या गला बिटीक बोल्ण शुरू करी; बेटा तू अब कृष्णा तैं भूल ज़ा, अब वा ई दुनिया सी दूर चलीगे,,,,,,,,, थोड़ा रुक्ण का बाद वॊन फिर बोल्न शुरू करी। कृष्णा का बारहवी पास करण का बाद मैं वींका बुबजी तै मिली छौं, मगर वू द्वी साल रुकणौ तै  तैयार नि छा, मैं बहुत कोशीश करी पर वू नि माणिन किलैकी वॊन तै एक और सुन्दर रिश्ता मिलणु छौ। परन्तु सगै का ठीक द्वी दिन पैली कृष्णा घास का बाना परै बौण गै  और वखी कुलैंगा ड़ाळा  परै जुडन फांस लगैकी मरीग़े।  

मुकेश पागुलू की चारुयु कभी माँ का मुख परैं और कभी बुबजी का मुख परै देख्दु रैगी छौ। वू बोल्न चांदू छौ कि तुम लोग मी तै ठगौणा छा, अभि ब्याली ब्याखनी त वा मी दगड़ी कट्ठा ऐ। पर वैगी  मानों जन जुबान  परै ताला लगी छा,,,,,,,,,,, वू विस्मित ह्वैकि याद कर्नै कोशिश छौ करनू कि जतना दौडीक  तै कृष्णा वैकी छाती  परैं चिपकी छै, वै  इन किलै नि  लगी छौ कि क्वी वे परै चिप्क्यु च। त वा कु छै ज्व़ा मेरा दगडा-दगडी चलीक बच्योंदी  ऐ, तत्रा रस्ता ?                                                                   


( नोट:यह कहानी बहुत पहले मैंने हिन्दी में लिखी थे उसका यह गर्वाली रूपांतरण है )
                                    

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