Thursday, February 24, 2011

सस्यों !

छवि गूगल से साभार

डाली-बोट्ल्यों मधुमास छौ,
डांडी-कान्ठ्यों उल्लास छौ,
माटु-कमेडू पुतेगी छ्यु,
कूडैगी ऐथर-पैथर पाली पर,
खुदेड गीत फूलीगी छाया ,
पंया, ग्वीरीयाल की डाली पर !
क्वांसी-जिकुड़ी सास छाई,
घौर आण की आश छाई,
स्काप-पाख्ली छोडी की,
पिंगली चादरी ओढ़ी की,
गौंकि उकाल, उन्ध्यार मा,
इकटक लगीं छै धार मा,
ज्यू कुम्लायुं देखीक बुरांश,
बुकरा-बुकरी रोइ हिलांश !!

4 comments:

  1. कविता तो पल्ले नही पडी जी,थोडी पंजाबी या हिन्दी मे भी समझाते तो समझ आती, धन्यवाद

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  2. भाटिया साहब, आलस्य कर जाता हूँ हर वक्त ! सार यह है कि पहाड़ों में वसंत आ गया है, घरों की पुताई हो गई है, गर्म कपडे छोड़ लोग पोशाकों में उतर आये ! वह भी उनके आने की रह देख रही थी मगर एक बुराश के फूल को मुरझाया देख फूट-फूट के रोने लगी !

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  3. भाटिया जी से सहमत हूँ| पहाड़ी होने के बाबजूद भी कई गूड़े शब्द समझ में नहीं आते| धन्यवाद|

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  4. yeah!, it is cool,its showing your deep knowledge in Garhwali Language

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